Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहडे
[जयधवला भाग ५
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १८० ९ एवं पढ़माए
१८० ३३ समान है । इसी प्रकार
१८३ ७ तप्पाओग्गविसुद्धस्स ।
१८३ २५ होता है।
१९४ २१ अर्थात् यद्यपि १९८ २० सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व के १९९ ९ सगहिदी । अणंताणु १९९ २७ स्थिति प्रमाण है । अनन्तानुबंधी
चतुष्क के २०२ १६ प्रकृति के २२१ ३४ ३४५ २२२ २०६३४६ २२२ ३० सर्वार्थसिद्धि तक के २२२ ३३ अनुभाग ही पाया २२२ ३५ ६ ३४७ अब २३१ ९ देसूणा : अणवाणु
[णवरि सम्मामिच्छत्तस्स अणुक्कस्साणभागो णत्थि ] एवं पढमाए समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व का अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म नहीं होता] इसी प्रकार तप्पाओग्गविमुद्धस्स । [ सम्मत्त० सम्मामिच्छ० जह० णत्थि ] होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्य अनुभाग सत्कर्म नहीं होता। अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व के समान सम्यक्त्व का सगद्विदो। [सम्मामि० उक्कस्स भंगो] अणंताणु० स्थिति प्रमाण है [सम्यग्मिथ्यात्व का उत्कृष्ट के समान भंग है] अनंतानुबंधीचतुष्क के प्रकृति विभक्ति के 8 ३४६ ६३४७ सर्वार्थसिद्धि के उत्कृष्ट अनुभाग ही पाया ६३४८ अब देसूणा०। (सम्मामिच्छत्ताणं एवं चेव । णवरि जहणं णत्थि) अणंताणु स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्व में भी इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु जघन्य अनुभाग विभक्ति नहीं है । अनंतानुबंधी चतुष्क की सम्मत्त० (सम्मामिच्छ०) सिया शेष तीन अनन्तानुबंधी कषायों की सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् होता है सम्मत्त० (सम्मामिच्छ०)- बारसक० सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय नवक बंध के स्पर्धकपने को उससे अनन्तानबंधी लोभ का भीतर और उत्कृष्ट काल छब्बीस परिणामवाले दो आवली है। भंगा। [तिण्णि मणुसेसु सम्मामि० भंगा णव] पंचि० होते हैं। [तीन मनुष्यों में सम्यग्मिथ्यात्व के ९ भंग होते हैं ] पंचेन्द्रिय
२३१ ३० स्पर्शन किया है । अनन्तानुबंधी
चतुष्क की
२५३ ११ सम्मत्त० सिया २५३ १८ शेष तीन कषायों की २५३ ३३-३४ सम्यक्त्व कदाचित् होता है २५४ ३ सम्मत्त० बारसक० २५४ १७-१८ सम्यक्त्व, बारह कषाय २६१ १५ नरकबंध के २६१ २३ स्पर्धक अपने को २६४ ३२ लोभ का २७७ १४ भीरत २७८ २८ और छब्बीस ३०२ २७ परिणा वाले " ३१० ३० एक आवली है ३१७ ७ भंगा। पंचिं० ३१७ २४ होते हैं । पंचेन्द्रिय