Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 261
________________ २२८ पृष्ठ पंक्ति २९१ ३० २९४ चरम पंक्ति २९५ २४ द्विचरम २९८ १९ वेदवले ३०६ २९ ३४०१२२३४ ३०६ २९ ८४ ४२५१४२८ = ३४०१२३३४ ३०६ ३०० x ६४२५१५२८ ३७६ १५ सद्रप ३८७ ३४ बन्ध कर पुनः पृष्ठ पंक्ति विषय परिचय : अशुद्ध इसलिए इससे एक समय पीछे जाकर ४२ ३१ ४८ २५ ४८ २७ १३ ९ तक न्यूतन १३ २२ ( एक सनय मूल ग्रन्थ : ४८ २९ ४९ ६ ४९ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे शुद्ध इसलिए इस आवली के अन्त से एक समय पीछे जाकर चार अंतिम समय ६३ १८ ६५ ८ ६५ २२ ६५ २२ ६५ २५ अशुद्ध जघन्य प्रदेश विभक्ति वाले वर अता २७ कि अनंतानुबन्धी चतुष्क को बारहवें कल्प तक तियंच भी की जघन्य प्रदेश - विभक्तिवाले जीवों ने लोक के चतुश्चरम समय त्रिचरम वेदवाले जयधवला भाग ७ शुद्ध नियम से अधिक भागब्भहिया । प्रदेश विभक्ति होती है। प्रदेश विभक्ति होती है। असँख्यात्वें भाग अधिक ३४०१२२२४ ८x४२५१५२८ = ३४०१२२२४ 36 8 x४२५१५२८ सद्रूप विसंयोजना कर पुन: तक नूतन ( एक समय [ जयधवला भाग ६-७ बारहवें कल्प तक मिध्यादृष्टि तिथंच भी की जघन्य और अजघन्य प्रदेश विभक्ति वाले जीवों ने लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है । अजघन्य प्रदेश - विभक्ति वाले जीवों ने लोक के जघन्य और अजघन्य प्रदेश विभक्ति वाले वरि [सम्म० सम्मामि०] अनंताणु० कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धो चतुष्क की नियम से विशेष अधिक गुणभहिया । प्रदेश विभक्ति भी होती है। प्रदेश विभक्ति भी होती है । असंख्यातगुणी अधिक

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