Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे
[जयधवला भाग ११
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ९६ १५ चाहिए । पहली
शुद्ध चाहिए। किन्तु अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहली तीन कषायों को इसी प्रकार सम्यक्त्व के साथ पुरुषवेद के विषय में
११३ ३४ तीन क्रोधों को १२१ १६-१७ इसी प्रकार पुरुषवेद की
मुख्यतया से १२१ २३ इसी प्रकार तीन १३८ १९ प्रवक्तव्य १४७ १७ और उपपाद पद की १४८ २७ किमा १५१ १२ काल सर्वदा है। १५५ ३३ हानि और १७९ ३३ सम्यक्त्व अनुभाग के १८८ २४ कायस्थिति पूर्व कोटि पृथक्त्व १९२ १४ भागगमाण २२६ १५ द्विचरम समय में २३२ ३२ तिर्यंच पर्याप्त; सामान्य २४३ ३५ कुल कम २५२ ३२ कल्प में होते हैं, २७० २७ अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व प्रमाण २७१ १३ कहा है । क्षपक श्रेणि के २७१ १९ वर्ष पृथक्त्व प्रमाण २९८ १९ असंख्यातगुणी ३०३ १५-१६ अनन्तगुण बृद्धि तथा
अनन्तगुण हानि के ३०५ ३५ अन्तर्मुर्त प्रमाण ३०७ २५ कर्मभूमिज तिर्यंचों में ही प्राप्त
होने से ३२२ २१ अपेक्षा जो ३२९ १८ क्षपक मिथ्यादृष्टि जीव के गे ३३८ २८ क्षपक के जघन्य ३४२ २९ अनन्तगुणी देखी ३४६ २२ यहां पद कारण का ३४९ १७ उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा ३४९ १९ उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध ३६४ २२ देवों और देवों में
इसी प्रकार मानादि तीन अवक्तव्य xxx [उपपाद पद नहीं होता है ।] किया काल संख्यात समय है। उत्कृष्ट हानि और सम्यक्त्व के अवक्तव्य अनुभाग के कायस्थिति से अधिक पूर्व कोटि पृथक्त्व भागप्रमाण चरम समय में तिर्यञ्च पर्याप्त, मनुष्य पर्याप्त, सामान्य कुछ कम कल्प तक होते हैं, अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्रमाण कहा है । दर्शनमोह क्षपक और क्षपकश्रेणि के साधिक एक वर्ष प्रमाण विशेषाधिक असंख्यातगुणवृद्धि तथा असंख्यातगुणहानि के
अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नपुंसकवेद के उत्कृष्ट काल की अपेक्षा
अपेक्षा उत्कृष्टरूप से जो क्षपक जीव के मिथ्यात्व की दो क्षपक के चरम अनन्तगुणी हीन देखी यहां पर कारण का उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध देवियों और देवों में