Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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शुद्धिपत्र ]
पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध
१०३ ११ कोहेणो बट्ठिदस्स १२० २१ पुरुवेद
१२० चरमपंक्ति समयसम्बन्धी
१२०
अन्तरकरण करने पर
27
१२४ २९ सूक्ष्मसाम्परायिक का
१२५ १० बादर लोभवेदगद्धाए
१२६ २५
निर्देश देखा जाता है
१२६
तणिद्दे सदंसणादो ।
७- ८ १३२ ६ असंखेज्जदि भागपडिभागत्तादो
१३२ २२ असंख्य । तवें
१३४ चरम पंक्ति चाहिये । यह
१३५ १२ ण, मोहणीयस्सेव
१३५ १३
मरणव सेण
१३५ ३१
नहीं, क्योंकि
१३५ ३१
समान ही है,
१३५ ३२ मरण
१३६ १९ अन्तर्मुहूर्तं
१५१ ५ अस्थि
१५३ २९ काल के भीतर स्थितिबन्धापसरणों को
अन्तर करता है।
नहीं होता ।
१६६ २१ १६७ २१
१७१
१७२
१२ स्थितिकाण्डक की
२७
होता है । ऐसा समझकर
भाग प्रमाण होता है ।
सदसहस्स ।
शुद्ध कोणोवट्ठदस्स
२१३ २५ स्थितिकाण्डकों के जाने पर २१५ ९-१० जहाकममसंखेज्जगुणहाणीए (१)
पुरुषवेद
X
अन्तरकरण किये जाते समय
बादरसाम्परायिक का
लोभवेदगद्धाए
निर्देश नहीं देखा जाता है ।
सासणादो | संखेज्जदिभागपडिभागत्तादो
संख्यातवें
चाहिए, परन्तु मोहनीय कर्मकी अनिवृत्तिकरण उपशामक के अन्तिम स्थितिबन्ध की जो आबाधा है उसे
ग्रहण करना चाहिए ।
ण मोहणीयस्सेव
करणवसेण
X
समान नहीं है,
करण
२४१
मुहूर्त
अत्थि
काल के भीतर संख्यात हजार स्थितिबन्वापसरणों को
१८० २३
१८२ १२
१८३ १५ लक्षण
लक्ष
१८७ १८ १९ अल्पबहुत्व इस अल्पबहुत्व विधि से स्थितिबन्ध
२१३ २४
जाता है । अब
अन्तर करेगा
नहीं होता । अनन्तर समय में ये दोनों ही घातप्रवृत्त होंगे ।
स्थिति-सत्कर्म की
होता है, क्योंकि इसके उपशमश्रेणिसम्बन्धी घात नहीं
प्राप्त हुआ है । ऐसा समझकर
भागप्रमाण अधिक होता है । सदसहस्सस्स ।
हो जाता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार इस स्थान पर समस्त कर्मों का स्थिति-बन्ध यथाक्रम संख्यातवर्षं प्रमाण हो गया । अब
. स्थितिकाण्डक पृथक्त्व के जाने पर जहाकमं संखेज्जगुणहाणीए