Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 275
________________ २४२ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध २१५ २५ असंख्यातगुणहानि २२० १७ प्रतिबद्ध है । इस प्रकार २२१ चरम पंक्ति समस्त द्रव्य के अनंतवें २२५ १८ अब जिसने एक आवलिप्रमाण २२५ २१ है । द्वितीय स्थिति जयधवलासहिदे कसायपाहुडे शुद्ध संख्यातगुणहानि प्रतिबद्ध है । संक्रामण प्रस्थापक के पूर्वबद्ध कर्म कैसे अनुभाग में प्रवृत होते हैं । इस प्रकार समस्त द्रव्य के अनुभाग के अनन्तवें अब जिसने अन्तरकरण सम्पन्न करने के बाद एक आवलि प्रमाण है । सामान्य से वह अवशिष्ट प्रथम स्थिति भी अन्तमुहूर्त प्रमाण ही होने से वह यहाँ अन्तर्मुहूर्तं कही गयी है । द्वितीय स्थिति २२८ २३५ १५ १७ निर्जरित हुई और नहीं निर्जरित हुई संक्रान्त हुई अथवा सक्रान्त नहीं हुई आया है, क्योंकि उनका संक्रमद्रव्य संक्रम में अल्पबहुत्व तीसरी गाथा अनुभाग प्रकृति का उत्कर्षण २६४ २२ २७० २० २७४ १६ २७८ १७ दो तीन २९४ २०-२१ छोड़कर ऊपर छोड़कर तथा ऊपर २९५ १८-२२ नोट — मूल चूर्णिसूत्र के अर्थ को ९३६१ के बाद पढ़ना है । ३१० २८ जितनी स्थिति ३१० २८ ३१० ३४ अनुसार प्ररूपणा ३२३ १८-१९ अर्थात् मूल से लेकर ३२३ २० हीन अनुभाग के ३२३ २२-२३ डिडोले के खम्भे और रस्सी अन्त राल में त्रिकोण होकर कर्णरेखा के आकाररूप से दिखाई देते हैं । वहाँ से लेकर क्रोधादि लोभ का अनुभाग सत्कर्म ३२३ ३५ ३२८ ३० ३३१ चरम पंक्ति पहली ३३५ १० अणंता भागा अनंताभागा ३३६ २७ अविशेष ३३७ २५ दो भाग ३३७ २६ दो भाग ३३७ ३० दो भाग अधिक ३३७ ३१ तीन ३३७ ३२ चार ३३८ १७ संख्यातभाग आया है, अथवा वह अनुक्त के समुच्चय के लिए आया है, क्योंकि [ जयधवला भाग १४ उनका गुणसंक्रमद्रव्य संक्रम में स्वस्थान अल्पबहुत्य तीसरी भाष्यगाथा प्रतिसमय अनुभाग दो त्रिभाग जितने अनुभाग प्रकृति का अनुभाग उत्कर्षण अनुसार अर्थ - प्ररूपणा मूल तक हीन अनुभाग स्पर्धक के हिण्डोले के स्तम्भ और रस्सी के अन्तराल में त्रिकोण होकर कर्णाकार रूप से दिखता है । वहाँ से लेकर काण्डकघातद्वारा क्रोधादि मान का अनुभाग सत्कर्म पहले स्पर्धक की अनंता भागा अनंतभागा अवशेष द्वितीय भाग द्वितीय भाग द्वितीय भाग अधिक तृतीय चतुर्थ संख्यातवें भाग

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