Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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पृष्ठ पंक्ति
१० २६ उपशम
१० २८
उपशम
१९ १६
२३ १२
२४ ८ चव
२४
१६ उदयावलि
२८
२२
२९ १३
२९ १४-१५ दो छासठ सागरोपम, नाना गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि
२९
१६
२९
१८
२९ २३
अशुद्ध
गुणसंक्रमणद्वारा णाणतपमाणत्त
गुणश्रेणि गोपुच्छा से
समयबद्धों का
२९
२४
३१
९ जाणिदू ण
३३ १९-२० नहीं होता है इसका
९५
९६
९७
और गुणसंक्रमभागहार के
उत्कर्षण - अपकर्षण से
ज्ञात नहीं होता ?
उसे उदय में
३२
गुणकार से गुणा
४१ ४ णात्थि
५४ चरम पंक्ति नीचे उत्कृष्ट
५५ २७ श्रेणि की प्ररूपणा की अपेक्षा अपने
५६ २२ अनानुपूर्वी
५९ चरम पंक्ति असंख्यातवाँ
६३ २७ प्राप्त न होने के
६६
१३
कायव्वो ।
६६
जाता है ।
७२
७४
२८
२८ दुगुणा 1
२८ होते समय यहाँ से
८३ २१ स्थितिबन्ध जाकर
८४ २८ स्थिति बन्ध जाकर
९५ १२-१३ मायामोकडिदे माणस्स
९५ १५ अवस्थितपने का
२९
१९
जयधबला भाग १४
शुद्ध
करने पर मान का
अपूर्वकरण जीव
प्रथम समय से लेकर
उपशामक
उपशामक
अघः प्रवृत संक्रमद्वारा
णाणं तप्पमाणत्त
चेव
उदयस्थिति
गोपुच्छा से
जघन्य समयप्रबद्धों का
दो छासठ सागरोपम की नानागुणहानियों की अन्योन्याभ्यस्त राशि के
उत्कर्ष - अपकर्षणभागहार से
ज्ञात नहीं होता, क्या कारण है ?
उसे अतिस्थापनावलि को छोड़कर उदय तक सब
स्थितियों में
भागहार से भाजित
जाणिदूण
नहीं होता है, इस प्रकार इस अर्थ विशेष को मूल प्रकृतियों का आश्रय कर
णत्थि
नीचे छोड़े गये
इस प्ररूपणा के तुल्य
आनुपूर्वी
संख्यातवां
प्राप्त होने के
कायव्वो ?
जाता है ?
द्वितीय भाग प्रमाण है ।
होते समय एक स्थानिक बन्ध समाप्त हो गया । यहाँ से
स्थितिबन्धोत्सरण करके
स्थिति-बन्धोत्सरण करके
मायामोकड माणस
अनवस्थितपने का
करने वाले के
अघः प्रवृत्तकरण संयतजीव
अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर