Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 262
________________ अशुद्ध की शुद्धिपत्र ] २२९ पृष्ठ पंक्ति ७० २२ प्रदेश विभक्ति होती है । प्रदेश विभक्ति भी होती है। १०४ २४ प्रदेश गुहानि स्थानान्तर प्रदेशगुणहानि स्थानान्तर ११२ १८ उसका संज्वलनों का उसका चारों संज्वलनों का ११३ ३२ विबृति विकृति १३५ १४ सम्मामि । अप्प० कस्स० अण्णद० । सम्मामि० अप्प० कस्स ? अण्णद० । १३५ ३४-३५ अन्यतर सम्यग्दृष्टि और अन्यतर के होती है । सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व की सम्यग्मिथ्यादष्टि के होती है १३७ २३ उपशम सम्यक्त्व के समय उपशम सम्यक्त्व के और क्षपणा के समय १३८ १४ भी १४८ १९-२२ या अधिक से अधिक....पृथक्त्व प्रमाण कहा है। १४८ २८ अन्तर वही है । अनंतानुबंधी चतुक अन्तर वही है (अर्थात् देशोन ३१ सागर है) अनन्तानु बन्धी चतुष्क की १५१ २८ इनमें अवस्थित विभक्ति इनमें छः नो कषायों की अवस्थित विभक्ति १६१ २० आठ बटे चौदह आठ बटे और कुछ कम नौ बटे चौदह १६६ ९ भुज० जह भुज० [अवत्त०] जह १६६ २७ भुजगार विभक्ति का जघन्य भुजगार विभक्ति और अवक्तव्य विभक्ति का जघन्य १७८ ३३ गुणितकौशिक क्षपितकर्माशिक १८४ १५ गुण श्रेणियों के स्तिबुक संक्रमण के गुणश्रेणियों में स्तिबुक-संक्रमण के द्वारा उदय में आ द्वारा उदय में आ गई है १८५ १३ आदेसेण मिच्छत्त आदेसेण [रइय०] मिच्छत्त१८५ १४ उक्क० वड्डी । हाणी उक्क० हाणी । वड्डी १८५ ३१ आदेश से मिथ्यात्व आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व १८५ ३३ उत्कृष्ट वृद्धि उत्कृष्ट हानि १८५ ३३ उत्कृष्ट हानि उत्कृष्ट वृद्धि १८७ १८ जुगुप्सा की जघन्य हानि जुगुप्सा की जवन्य वृद्धि, हानि १८७ २६ अवक्तव्य वृद्धि है । अवक्तव्य विभक्ति है। १९१ १० आदेसेण मिच्छ० आदेसेण [गेरइय०] मिच्छ० १९१ २७ आदेश से मिथ्यात्व की आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व की १९१ ३३ तब उसके तब तक उसके २०३ ६ भागवड्डी० अवट्ठि भागवड्डी हाणी० अवट्ठि० २०३ २२ भागवृद्धि और भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और २०६ ८ असंखे० गुणवड्डो० णत्थि संखे० गुणवड्डी णत्थि २०६ २६ असंख्यातगुणवृद्धि का । संख्यातगुणवृद्धि का २०६ ३० पुरुषवेद की असंख्यातगुणहानि पुरुषवेद और नपुंसकवेद की असंख्यातगुणहानि २०७ १ पलिदो० असंखे० भागहा० पलिदो० । असंखे० भागहा० २०७ १७ और एक समय है और असंख्यातभागहानि का एक समय है ३०

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