Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्याहियार मायालोभकषायोपयोगांश्च पौनःपुन्येन कालभावोपयोगवर्गणाभिः परिणममाणः लतादार्वस्थिशैलसमानि च कर्मानुभवस्थानानि मन्दमध्यमोत्कृष्टपरिणामवशादसकृत्प्रवर्तयन् बहुविधपरिवर्तनैरनन्तकृत्वः परिवृत्य ततोऽन्तर्लीनभव्यत्वशक्तिसहायः कथंचित्कर्मबंधनेषु द्रव्यादिबाह्यकारणचतुष्टयापेक्षया शिथिलतामापद्यमानेषु संज़िपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकत्वादिलक्षणां प्रायोग्यलब्धिमात्मसात्कुर्वाणः देशनालब्धि क्षयोपशमविशुद्धिकरणलब्धीश्च' यथाक्रममासाद्य ततो दर्शनमोहोपशमप्रतिलम्भान्निसर्गाधिगमयोरन्यतरजं तत्वार्थश्रद्वानात्मकं शंकायतीचारविप्रमुक्तं प्रशमसंवेगास्तिक्याभिव्यक्तलक्षणं विशुद्धसम्यग्दर्शनपरिणाममुत्पाद्य तत्समकालमेव विशुद्धं च ज्ञानमधिगम्य समुपलब्धबोधिलामोनिक्षेपनय-प्रमाण-निर्देश-सत्संख्यादिभिरभ्युपायैर्जीवादिपदार्थानां स्वतत्त्वं विधिवत्परिज्ञाय चेतनाचेतनानां मोगोपभोगसाधनानामुत्पत्तिप्रलय-स्वभावावगमाद्विरक्तो वितृष्णस्त्रिगुप्तः पंचसमिति-दशलक्षणधर्मानुष्ठानात्फलदर्शनाच्च निर्वाणप्राप्तिप्रयतनायाभिवधितश्रद्धानो भावनाभिर्भावितात्मानुप्रेक्षाभिः स्थिरीकृतविषयानभिष्वगः संवृतात्मा निरास्त्रवत्वाद् व्यपगताभिनवकर्मोपचयः परीषहजया बाह्याभ्यन्तरतपोऽनुष्ठानादनुभवाच्च
अवस्थाको निरन्तर धारण करता हुआ उन कर्मों के बन्ध, संक्रम, उदय और उदीरणारूप परिणामों को निरन्तर अपने रूप करता हुआ, क्रोधोपयोग, मानोपयोग, मायोपयोग और लोभोपयोगरूपसे कालोपयोग एवं वर्गणाओंद्वारा और भावोपयोगरूप वर्गणाओंद्वारा पुनः-पुनः परिणमन करता हुआ, लता, दारु, अस्थि और शैलके समान कर्मोके अनुभाग स्थानोंको मन्द, मध्यम और उत्कृष्ट परिणामोंके वशसे निरन्तर प्रवर्ताता हुआ, नाना प्रकारके परिवर्तनोंद्वारा अनन्त बार परिभ्रमण करके तत्पश्चात् भीतर योग्यतारूपसे प्राप्त भव्यत्व शक्तिकी सहायतावश किसी प्रकार कर्मबन्धनोंके द्रव्यादि बाह्य चार प्रकारके कारणोंकी अपेक्षा शिथिलताको प्राप्त होनेपर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकादि लक्षणवाली प्रायोग्यलब्धिको आत्मसात् करता हुआ, देशनालब्धि, क्षयोपशमलब्धि, विशद्धिलब्धि और करणलब्धिको क्रमसे प्राप्त करके उनके बलसे दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमके प्राप्त होनेसे निसर्गज और अधिगमज अन्यतर तत्त्वार्थश्रद्धानरूप, शंकादि अतीचारोंसे रहित, प्रशमसंवेग-आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति (ज्ञापक) लक्षणवाले विशुद्ध सम्यग्दर्शन परिणामको उत्पन्नकर, उसीके समान कालमें विशुद्ध (आत्मानुभूतिरूप) ज्ञानको प्राप्तकर, इस प्रकार बोधिलाभको प्राप्त करता हुआ निक्षेप, नय, प्रमाण तथा निर्देश अस्तित्व संख्या आदि उपायोंसे जीवादि प्रदार्थोके स्वतत्त्वको विधिवत् जानकर भोगोपभोगके साधनरूप चेतन और अचेतन पदार्थोंकी उत्पत्तिस्वभाव और प्रलयस्वभावका ज्ञानहोनेसे विरक्त व तृष्णारहित होता हुआ, तीन गुप्तियोंसे गुप्त (सुरक्षित) हुआ, पाँच समितियों और दशलक्षण धर्मके अनुष्ठानसे युक्त संसार और उनके कारणोंसे प्राप्त हुए चतुर्गतिपरिभ्रमणरूप फलके श्रद्धानको प्राप्त हुई विशुद्धिद्वारा बढ़ाता हुआ, भाई-गई आत्मानुप्रेक्षारूप बारह भावनाओंकेद्वारा विषयोंकी अभिलाषासे रहितपने को जिसने स्थिर कर लिया है ऐसा संवृत
१. प्रेसकापीप्रती लब्धिश्च इति पाठः। २. आ० प्रतौ परीषहचयात् इति पाठः ।