Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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शुद्ध
२२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[जयधवला भाग २ पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध ४०७ १८ कृष्ण आदि तीन
पीत आदि तीन ४१० १० अपज्ज
अपज्ज० तसअपज्ज ४१० ३१ अपर्याप्तक जीवों में
अपर्याप्तक तथा त्रस अपर्याप्तक जीवों में ४११ ८ मणपज्जव० सामा
मणपज्जव० संजद० सामा४११ २८ मनःपर्ययज्ञानी
मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामा४१६ ८ अंतोमहत्तं
अंतोमहत्तं । एवं अपगदवे०। णवरि अप्प० जह०
एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । ४१६ २८ अन्तर्मुहूर्त है।
अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अपगतवेदी के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अल्पतर विभक्ति स्थान वाले जीवों का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात
समय है। ४२२ २९, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच सामान्य ४२७ ४ सण्णि
असण्णि ४२७ १३ संज्ञो
असंज्ञी ४२८ १५. देव० विकलेन्द्रिय
देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, ४४२ २९-३० प्रारम्भ में पल्य....उद्वेलना करावें प्रारम्भ में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करावें ४५० ५ और पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम x ४५१ ७ पञ्जत्त-औरालियमिस्स
पज्जत्त-तस अपज्ज० ओरालिय ४५१ २३ अपर्याप्त औदारिक-मिश्र
अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, औदारिक-मिश्र ४५४ ३ संखेज्जभागहाणी जहण्णुक्क० संखेज्जभागहाणी-संखेज्जगुणहाणी जहण्णुक्क० ४५४ १५ संख्यातभागहानि का जघन्य संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि का जघन्य ४५५ ३ मंजदासंजद० । चक्खु०
संजदासंजद० । असंजद तिरिक्खभंगो चक्खु ४५५ १५ चाहिए । चक्षुदर्शनी
चाहिए । असंयत जीवों का तिर्यंचों के समान भंग है।
चक्षुदर्शनी ४६० ३ एवं मणपज्जव०
एवं अपगदवेदी-मणपज्जव० ४६० १५ इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी इसी प्रकार अपगतवेदी. मनःपर्ययज्ञानी ४६२ ८ सणित्ति०
सुक्क० सणित्ति० ४६२ २४ संजी जीवों का
शुक्ल लेश्या वाले और संज्ञी जीवों का ४६४ ८ सण्णि
असण्णि ४६४ २६ संज्ञी
असंज्ञी ४६४ ३० असंख्यातवें भाग
संख्यातवें भाग ४६८ ९ मिस्स०-आहार-मिस्स० अकसा० मिस्स० आहार० आहारमिस्स० अपगदवेद० अकसा. ४६८ २८ योगी, आहारमिथकाययोगी, अकषायी योगी, आहारककाययोगो, आहारकमिश्रकाययोगी
अपगतवेदी, अकषायी ४६०. ११ श्रुतज्ञानी
श्रुत अज्ञानी ४२८ १० जहाक्खाद० उवसम०,
जहाक्खाद० अभवसि० उवसम० ४२८ २६ यथाख्यातसंयत-उपशम
यथाख्यातसंयत अभवसिद्धिक, उपशम ४२८ २९-३१ अभव्यों के....नहीं किया है।