Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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शुद्धिपत्र ]
पुराना संस्करण पृष्ठ पंक्ति
प्रश्न या सुझाव २५१ ५-६ “ कार्य की पूर्ववर्ती पर्याय को प्रागभाव और उत्तरवर्ती पर्याय को प्रध्वंसाभाव कहते हैं "; इसकी जगह ऐसा लिखना उचित होगा : - ' कार्य से पूर्ववर्ती पर्याय में कार्य का प्रागभाव रहता है तथा कार्य से उत्तरकालवर्ती पर्याय में कार्यं का प्रध्वंसाभाव होता है' । [ नवीन संस्करण पृ० २२७ पं० ३१-३२]
२६२ ९-१० द्रव्यार्थिक नयों का विषय मुख्यरूप से द्रव्य होते हुए भी गौणरूप से पर्याय भी लिया गया है ।
सुझाव : - द्रव्यार्थिक नय का विषय गौणरूप से भी पर्याय नहीं है ।
[ नवीन संस्करण पृ० २३७० ३०-३१] २६४५ में "सुद्धे” के स्थान में 'असुद्धे' होना चाहिए ।
[नवीन संस्करण पृ० २४० पं० ४] २६६ ४ ६ २१६ से नया पेरा नहीं होना चाहिए [ नवीन संस्करण पृ० २४१ ]
२९४ २९ " पदार्थ की" के स्थान पर 'कार्य की' होना चहिए ।
[ नवीन संस्करण पु० २६८ पं० २-४ ] पंक्ति १ में " आवरणस्स" के स्थान पर 'आवारयस्स' पद चाहिए तथा पंक्ति ११ में " आवरण का" की जगह 'आवारक का'; ऐसा पाठ होना ठीक लगता है । [नवीन संकरण पृ० ३२६-२७-२८ ]
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समाधान
जो पुस्तक में छपा है वह संक्षिप्त है । विस्तृत खुलासा इस प्रकार है- अव्यवहित पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य को प्रागभाव कहते हैं और अव्यवहित उत्तरपर्याय युक्त द्रव्य को कार्य कहते हैं । पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य का अव्यवहित उत्तरकालवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य प्रध्वंसाभाव है ।
है । २८९४ मूल पाठ में 'भवा' है, किन्तु भवा के पश्चात् कोष्ठक में "भावा" बढ़ा दिया है । अर्थ करते हुए पंक्ति २१ में भवन लिखकर भाव लिख दिया है; सो क्यों ? [ नवीन संस्करण पृ० २६३ पं० २]
वर्तमानग्राही नंगम नय की दृष्टि को भी संगृहीत करने के अभिप्राय से ही हमने यह वाक्य लिखा है कि द्रव्यार्थिक नय का विषय मुख्यरूप से द्रव्य होते हुए भी गौणरूप से पर्याय भी लिया गया है ।
सुझाव ठीक है । पर प्रतियों में सुद्धे पाठ उपलब्ध हुआ, इसलिये वैसा रहने दिया है
विषय स्फोट का होने से नया पेरा किया गया
यहाँ प्रागभाव के विनाश की विवक्षा होने से द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा कथन करना मुख्य है । इसलिए भव के स्थान में भाव, यह संशोधन किया है । ऐसा करने पर गाथा से कोई विरोध भी नहीं आता; क्योंकि गाथा में जिन प्रकृतियों का उदय भव को निमित्त करके होता है, यह दिखाना मुख्य है । यहाँ वह विवक्षा नहीं है ।
दृष्टान्त को ध्यान में रखकर 'पदर्थ' अर्थ किया है । उसके स्थान में कार्य पद स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है ।
प्रकृत में आवरण से ही आवरण करने वाले का ग्रहण हो जाता है, इसलिए मूलपाठ में संशोधन नहीं किया; मूल प्रति के अनुसार ही पाठ रहने दिया है ।