Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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पुराना संस्करण
पृष्ठ पंक्ति
९
२४
५८
शुद्धिपत्र
जयधवला भाग १
प्रश्न या सुझाव
१६ " सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिए", इसकी जगह ' सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिए कि सरागसंयम ही गुणश्रेणिनिर्जरा का कारण है ।' ऐसा पाठ चाहिए ।
( नवीन संस्करण पृ० ८ पं० १५ )
१४ " केवलज्ञानावरण कर्म केवलज्ञान का पूरी तरह से घात नहीं कर सकता है, " इस कथन की जगह 'केवलज्ञानावरण कर्म ज्ञान का पूरी तरह घात नहीं कर सकता है'; ऐसा हो तो ठीक है । ( नवीन संस्करण पृ० २१, पं० २६-२७ ) १९ " यदि जीव और शरीर में एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध नहीं माना जायगा तो जीव के गमन करने पर शरीर को गमन नहीं करना चाहिए ।" यहाँ 'एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध' की जगह 'बन्ध-सम्बन्ध' ; ऐसा होना चाहिए ।
( नवीन संस्करण पृ० ५२, पं० २७-२८ )
२८
समाधान
यह वाक्य आचार्य ने इस अपेक्षा से लिखा है कि सरागसंयम के काल में जो रत्नत्रयरूप आत्मपरिणाम होता है वह असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा का कारण है । उस संयम में जितना रागांश है वह बन्ध का हेतु है, इसलिए उपचार से सरागसंयम को भी कर्मनिर्जरा का कारण कहा गया है । परमार्थ से देखा जाए तो रत्नत्रय - परिणाम स्वयं होता है और उस समय कर्म- निर्जरा स्वयं होती है, ऐसा इनमें अविनाभाव सम्बन्ध है । इस अपेक्षा से रत्नत्रय कर्मनिर्जरा का कारण है, यह यहाँ विवक्षित है । उसमें उपचार करके यहाँ सरागसंयम को भी कर्मनिर्जरा का कारण कहा गया है ।
सामान्य ज्ञानशक्ति का कभी घात होता नहीं, इसीलिए मूल में जो कथन आया है, वह ठीक है । उसी के अनुसार हमने उक्त वाक्य लिखा है । उसमें विवाद नहीं होना चाहिए ।
यहाँ एक क्षेत्रावगाह के विषय में जो शंका उपस्थित की गई है वह ठीक होकर भी प्रकरण के अनुसार उसका खुलासा हो जाता है। वह इस प्रकार है कि निमित- नैमितिकरूप से एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए । यहाँ जीव का कर्म के साथ बन्ध, उदय आदि रूप निमित्त नैमित्तिक एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है और धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्यों का जीव पुद्गल के गति, स्थिति और अवगाह में निमित्त नैमित्तिकरूप से एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध
। यहाँ कालद्रव्य की अपेक्षा कथन नहीं किया । प्रकरण के अनुसार यह उक्त संशोधन का खुलासा है । जीव और कर्म का बन्ध की अपेक्षा जो एकत्व कहा गया है वह असद्भूत व्यवहार नय से ही कहा गया है, परमार्थ से नहीं ।