Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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पृष्ठ पंक्ति
३६
५१
५६
अशुद्ध
२२ मरण और व्याघात की
६
जयधवला भाग २
वणफदि' के
५ 'सुहुमवाउ० अपज्ज० स्थान में सुझाव :"सुहुमवाउ० अपज्ज० बादरवणप्फदिपत्तेय० बादरवणप्फदिपत्तेय अपज्ज० बादरणिगोदपदिदि० बादरणिगोदपदिदि - अपज्ज० । वणफदि" ऐसा पाठ चाहिए ।
६३ ४
सुझाव - " संजदा० वत्तव्वं" के स्थान पर 'संजदा० ( जहाक्खाद०) वत्तव्वं' चहिए ।
५८ १० मनुष्यों में मोहनीय विभक्ति वाले मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी कितने
६८ ४
"सुहुमपुढवि०" के स्थान में सुझाव -- '[ बादरवणफदि पत्तेय० बादरवणप्फदि पत्तेय अपज्ज० बादरणिगोदपदिट्ठिद० बादरणिगोदपदिट्टिद अपज्ज० ] सुहुमपुढवि०' ऐसा पाठ चाहिए ।
“खेत्तभंगो ।” के स्थान में सुझाव 'खेत्तभंगो [वेउब्विय विहत्ति० केवडिय० खे० पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो; अट्ठ-तेरह चोद्दस भागा वा देसूणा ] '
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शुद्ध
मरण की ।
मूल प्रति में संजदा० ऐसा पाठ । उसके स्थान में यह सुझाव है । समाधान यह है कि मणपज्जव ० संजदा० ऐसा पाठ है। इसमें मणपज्जव के आगे '0' ऐसा संकेत है । उससे जैसे केवलज्ञानियों का ग्रहण हो जाता है उसी प्रकार संजदा० के आगे जो '०' ऐसा संकेत है उससे अपनी विशेषतासहित संयत के उत्तरभेदों का भी ग्रहण हो जाता है; क्योंकि यहाँ उक्त जीवों में यथासम्भव सभी मार्गणाओं में मोहनीय की विभक्ति और अविभक्ति से युक्त संख्यात जोव ही होते हैं ।
सुझाव ठीक है । मूलताड़ प्रतियों से ही इसका निर्णय हो सकता है कि यह सुझाया गया अंश जोड़ना ठीक है, अथवा अन्य मार्गणाओं में इन्हें गर्भित समझा गया है ।
सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में मोहनीय विभक्ति वाले कितने
पृष्ठ ५६ पं०५ के सुझाव का जो समाधान किया है वही यहाँ पर समझना चाहिए।
मूल ताड़पत्रीय प्रतियों में सुझाव के अनुसार पाठ होना चाहिए तभी वह ग्राह्य हो सकता है । अन्यथा ओघ के अनुसार जानना चाहिए। किन्तु स्पर्शन प्ररूपणा में वैक्रियिककाययोगियों का स्पर्शन मूल में छूटा हुआ मान लें तो सुझाव के अनुसार "वैव्विय विहत्ति० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदि भागो, अट्ठ- तेरस चोद सभागा वा देसूणा", यह स्पर्शन बन जायगा। यह ताड़पत्रीय प्रतियों से विशेष मालूम पड़ सकता है ।