Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 217
________________ १८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार सेलेसि संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसवो जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होइ ॥ १॥ $ ३९४ एवमन्तर्मुहूर्तमलेश्यभावेन शैलेश्यमनुपालयति भगवत्ययोगि-केवलिनि कीदृशो ध्यानपरिणाम इत्यत आह * समुच्छिण्णकिरियमणियटिसुकज्झाणं झायदि । ६३९५ क्रिया नाम योगः । समुच्छिन्ना क्रिया यस्मिस्तत्समुच्छिन्नक्रियं, न निवर्तत इत्येवं शीलमनिवर्ति, समुच्छिन्नक्रियं च तदनिवर्ति च समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति समुच्छिन्नसर्ववाङ्मनस्काययोगव्यापारत्वादप्रतिपातित्वाच्च समुच्छिन्नक्रियस्यायमन्त्यं शुक्लध्यानमलेश्याबलाधानं कायत्रयबन्धनिर्मोचनैकफलमनुसंधाय स भगवान् ध्यायतीत्युक्तं भवति । पूर्ववदत्रापि ध्यानोपचारः प्रवर्तनीयः, परमार्थवृत्या एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणस्य ध्यानपरिणामस्य ध्रुवोपयोगपरिणते केवलिन्यनुपपत्तेः । ततो निरुद्धाशेषास्त्रवद्वारस्य केवलिनः स्वात्मन्यवस्थानमेवाशेषकर्मनिर्जरणकफलमिह ध्यानमिति प्रत्येतव्यम् । उक्तं च जो शीलेशपनेको प्राप्त हैं, जिन्होंने समस्त आश्रवका निरोध कर लिया है ऐसा जीव कर्मरजसे मुक्त होकर अयोगिकेवली होता है ॥ १ ॥ ६ ३९४ इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक अलेश्यभावसे शीलेशपनेको पालन करते हुए भगवान् अयोगिकेवलीमें कैसा ध्यान परिणाम होता है, इसलिए आगे कहते हैं * अयोगिकेवलि भगवान् समुच्छिन्न क्रिया (योग) रूप अनिवृत्ति (अप्रतिपाती) शुक्लध्यानको ध्याते हैं। ६ ३९५ क्रिया नाम योगका है जिस ध्यानमें क्रिया (योग) समुच्छिन्न हो गई वह समुच्छिन्नक्रियारूप ध्यान है तथा जो प्राप्त होनेपर निवर्तन होनेरूप स्वभाववाला नहीं है वह अनिवर्ति ध्यान है । जो समुच्छिन्नक्रियारूप होकर अनिवति ध्यान है वह समुच्छिन्नक्रियानिति ध्यान कहलाता है। समस्त वचनयोग, मनोयोग और काययोगके व्यापारके नामशेष हो जानेसे तथा अप्रतिपाती होनेसे समुच्छिन्नक्रियापनेके साथ तथा लेश्याके अभावरूप बलाधानसे युक्त इस अन्तिम शुक्लध्यानको कायत्रयनिमित्तकबन्ध निर्मोचनरूप एक फलका अनुसन्धान करके वे भगवान् ध्याते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पहलेके समान यहाँपर भी ध्यानका उपचार प्रवृत्त करना चाहिये, क्योंकि परमार्थवृत्तिसे एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षण ध्यानपरिणाम ध्रुवोपयोगसे परिणत केवली भगवानमें नहीं बन सकता। इसलिये समस्त आस्रवद्वार जिनका निरुद्ध हो गया है, ऐसे केवली भगवान्के अशेष कर्मोंकी निर्जरारूप एक फलवाला अपनी आत्मामें अवस्थान हो यहाँ, ध्यान है ऐसा निश्चय करना चाहिये । कहा भो है

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