Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २३१ ]
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* जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि पाणत्तं ।
§ २६१ सुगमं ।
* अंतरं करे माणो लोभस्स पढमट्ठिदि ठवेदि ।
8 २६२ एदं ताव पढमं णाणत्तं । पुव्विल्लक्खवगो कोहसंजलणस्स पढमट्ठिदिमंतोमुहुत्तायामेण ठवेदि । एसो वुण तप्परिहारेण लोहसंजलणस्स अंतोमुहुत्तमेत्तिं पढमट्ठिदि वेदित्ति ! संपहि एदिस्से पढमट्ठिदीए पमाणविसेसावहरणट्ठमिदमाह -
* सा के महंती !
९ २६३ सा कियन्महत्ती ? किं प्रमाणेति प्रश्नः कृतो भवति ।
* जद्देही कोहेण उवट्ठिदस्स कोहस्स पढमट्ठिदी कोहस्स माणस्स मायाए च खवणद्धा तद्देही लोभेण उवदिस्स पढमहिदी ।
$ २६४ कोहोदयक्खवगस्स को पढ मट्ठिदीए कोह-2 इ- माण - मायाणं खवणद्धाए च संपिंडिदाए जं पमाणमुप्पज्जदि तत्तियमेत्ती एदस्स पढमट्ठिदी होदि ति वृत्तं होइ ।
* जब तक अन्तर नहीं करता है तब तक भेद नहीं है ।
$ २६१ यह सूत्र सुगम है ।
* अन्तर करनेवाला क्षपक लोभसंज्वलनकी प्रथमस्थिति स्थापित करता है ।
§ २६२ यह प्रथम भेद-विशेषता है। पहलेका क्षपक क्रोधसंज्वलन की प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण स्थापित करता है । परन्तु यह क्षपक उसके परिहाररूपसे लोभसंज्वलन की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति स्थापित करता है । अब इस प्रथम स्थिति के प्रमाणविशेषका अवधारण करने केलिये इस सूत्र को कहते हैं
* वह लोभसंज्वलनके उदय से क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके प्रथम स्थिति कितनी बड़ी होती है ?
९ २६३ वह कितनी बड़ी होती है अर्थात् कितने प्रमाणवाली होती है ? यह प्रश्न किया
गया है ।
* क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जितनी बड़ी क्रोधसंज्वलन की प्रथम स्थिति तथा क्रोध, मान और माया संज्वलनका क्षपणाकाल है उतनी बड़ी लोभसंज्वलन के उदयसे अपकाणिपर चढ़े हुए क्षपकके प्रथम स्थिति होती है ।
$ २६४ क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति तथा क्रोध, मान और मायासंज्वलनके क्षपणाकालको एकत्रित करनेपर जितना प्रमाण उत्पन्न होता है उतनी बड़ी इसकी प्रथम स्थिति होतो है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और इस प्रकारकी