Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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अपुव्वफद्दयकरणं ]
६३६६ सुगमं । ताणि च पडिसमयमसंखेज्जगुणहीणकमेण णिव्वत्तेदि त्ति जाणावणमिदमाह
* असंखेजगुणहीणाए सेढीए जीवपदेसाणं च असंखेजगुणाए सेढीए ।
३६७ ए दस्म भावत्थो--पढमसमये णिव्वत्तिद-अपुवफद्दए हितो असंखेज्जगुणहीणाणि अपुव्वफद्दयाणि बिदियसमए तत्तो हेट्ठा णिवत्तेदि । पुणो बिदियसमये णिवत्तिद-अपुव्वफद्दए हितो असंखेज्जगुणहोणाणि अण्णाणि अपुवाणि तत्तो हेट्ठा तदियसमये णिवत्तेदि । एवमसंखेज्जगुणहीणाए सेढीए णेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तचरिमसमयो त्ति । जीवपदेसाणं पुण असंखेज्जगुणाए सेढीए ओकडणा पयदि पढमसमयोकड्डिदपदेसेहितो विदियसमए ओकड्डिज्जमाणजीवपदेसाणमसंखेज्जगुणपमाणेण पवत्तिदसणादो । एवं तदियादिसमएसु वि असंखेज्जगुणाए सेढीए जीवपदेसाणमोकहुणा अणुगंतव्वा त्ति ।
६३६८ संपहि बिदियादिसमएसु वि ओकड्डिदजीवपदेसाणं णिसेगसेढिपरूवणा एवमणुगंतव्वा । तं जहा--पढमसमयमोकद्धिदजीवपदेसेहिंतो असंखेज्जगुणे जीवपदेसे एण्हिमोकट्टियण बिदियसमये णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवफद्दयाणमादिवग्गणाए बहुए जीवपदेसे णिक्खिवदि । तत्तो विसेसहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमवग्गणादो त्ति । पुणो
६ ३६६ यह सूत्र सुगम है। परन्तु उन स्पर्धकोंको प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणहीनक्रमसे रचता है । इस बातका ज्ञान करानेकेलिये इस सूत्रको कहते हैं
* उन अपूर्व स्पर्धकोंकी असंख्यातगुणहीनश्रेणीरूपसे और जीवप्रदेशोंकी असंख्यातगुणीश्रेणिरूपसे रचना करता है।
६३६७ इस सूत्रका भावार्थ-प्रथम समयमें रचे गये अपूर्व स्पर्धकोंसे असंख्यातगुणे हीन अपूर्व स्पर्धक दूसरे समय में उनसे नीचे रचता है । पुनः दूसरे समयमें रचे गये अपूर्व स्पर्धकोंसे असंख्यातगुणे हीन अन्य अपूर्व स्पर्धकोंको उनसे नोचे तोसरे समयमें रचता है । इस प्रकार असंख्यातगुणहीन श्रेणिरूपसे अन्तमुहूर्तकालके अन्तिम समय तक जानना चाहिये । परन्तु जीवप्रदेशोंकी असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे अपकर्षणा प्रवृत्त होती है, क्योंकि प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये प्रदेशोंसे दूसरे समयमें अपकर्षित किये जानेवाले प्रदेशोंकी असंख्यातगुणहीन प्रमाणसे प्रवृत्ति देखी जाती है। इसी प्रकार तीसरे आदि समयोंमें भी असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे जीवप्रदेशों की अपकर्षणा जाननी चाहिये।
३६ अब द्वितीयादि समयोंमें भी अपकर्षित किये गये जोवप्रदेशोंको निषेकसम्बन्धी श्रेणिप्ररूपणा इस प्रकार जाननी चाहिये । यथा-प्रथम समय में अपकर्षित किये गये जोवप्रदेशोंसे असंख्यातगणे जीवप्रदेशोंको इस समय अपकर्षित करके दूसरे समयमें रचे जानेवाले अपूर्व स्पर्धकोंको आदि वर्गणामें बहुत जीवप्रदेशोंको रचता है। उसके आगे अपूर्व स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक विशेषहीन-विशेषहीन रचता है । पुनः प्रथम समयमें रचे गये अपूर्व
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