Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-मत्थाहियार * तदो बिदियसमए कवाडं करेदि ।
६३३७ कपाटमिव कपाटं । क उपमार्थः ? यथा कपाटं बाहल्येन स्तोकमेव भूत्वा विष्कंभायामाम्यां परिवर्द्धते, एवमयमपि जीवप्रदेशावस्थाविशेषः मूलशरीरबाहल्येन तन्त्रिगुणबाहल्येन वा देसूणचोइसरज्जुआयामेण सत्तरज्जुविक्खं मेण वढि-हाणिगदविक्खंमेण वा वड्डियूण चिट्ठदि त्ति कवाउसमुग्धादो त्ति भण्णदे, परिप्फुडमेवेत्थ कवाडसंठाणोवलंभादो । एस्थ पुव्वुत्तराहिमुहकेवलीणं कवाडखेलस्स विक्खंभमेदो अवहारिय पुव्वावराणं सुबोहो । एदम्मि पुण अवस्थाविसेसे वट्टमाणस्स केवलिणो ओरा-. लिय-मिस्सकायजोगो होदि, कार्मणौदारिकशरीरद्वयावष्टम्मेनतत्र जीवप्रदेशानां परिस्पंदपर्यायोपलंभात् । संपहि एदम्मि अवत्थंतरे वट्टमाणेण कीरमाणकज्जमेदपदंसण?मुत्तरसुत्तारंभो--
* तम्हि सेसिगाए हिदीए असंखेज्जे भागे हणइ ।
* उसके बाद दूसरे समय में केवली जिन कपाटसमुद्धात करते हैं ।
३३७ जो कपाटके समान हो वह कपाट है । शंका-उपमार्थ क्या है ?
समाधान-जैसे कपाट मोटाईकी अपेक्षा अल्प ही होकर चौड़ाई और लम्बाई की अपेक्षा बढ़ता है उसी प्रकार यह भी मूल शरीरके बाहल्य की अपेक्षा अथवा उसके तिगुणे बाहल्यकी अपेक्षा जीवप्रदेशोंके अवस्थाविशेषरूप होकर कुछ कम चौदह राजुप्रमाण आयामकी अपेक्षा तथा सात राजुप्रमाण विस्तारकी अपेक्षा वृद्धि-हानिगत विस्तारकी अपेक्षा वृद्धिको प्राप्त होकर स्थित रहता है वह कपाटसमुद्धात कहा जाता है, क्योंकि इस समुद्धातमें स्पष्टरूपसे ही कपाटका संस्थान उपलब्ध होता है।
इस समुद्धातमें पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुख केवलियोंके कपाटक्षेत्रके विष्कम्भके भेदका अवधारणकर पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुखकेवलियोंका अच्छी तरह ज्ञान हो जाता है। परन्तु इस अवस्थाविशेषमें विद्यमान केवलोके औदारिकमिश्रकाययोग होता है, क्योंकि उनके कार्मण और औदारिक इन दो शरीरोंके अवलम्बनसे जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दरूप पर्यायकी उपलब्धि होती है। अब इस अवस्थाविशेषमें विद्यमान जीवकेद्वारा किये जानेवाले कार्यभेदक दिखलानेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* कपाटसमुद्धातके कालमें शेष रही स्थितिके असंख्यात बहुभागका हनन करता है।