Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे (पच्छिमखंध-अत्थाहियार सुत्तत्थसब्भावो। एवमेत्तिएण विहागेण समुग्धादं उवसंहरिय सत्थाणे वट्टमाणस्स द्विदि-अणुभागकंडएसु संखेज्जसहस्समेत्तेसु समयाविरोहेण गदेसु' तदो जोगणिरोह कुणमाणो इमाणि किरियंतराणि णिव्वत्तेदि त्ति जाणावणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेड ।
* एत्तो अंतोमुहत्तं गंतूण बादरकायजोगेष बादरमणजोगं णि भइ।
३५३ मण-वयण-कायचेट्ठाणिवत्तणट्ठो जीवपदेसपरिप्फंदो कम्मादाणणिबंधणसत्तिसरूवो जोगो त्ति भण्णदे । सो वुण तिविहो, मणजोगो वचिजोगो कायजोगो चेदि । एदेसिमत्थो सुगमो । तत्थेक्केको दुविहो, बादरो सुहुमो चेदि । जोगणिरोहकिरियादो हेट्ठा सव्वत्थ बादरजोगो होदि । एत्तो परं सुहुमजोगेण परिणमिय जोगणिरोहं कुणइ, बादरजोगेणेव पयट्टमाणस्स जीगणिरोहकरणाणववत्तीदो। तत्थ ताव पुन्चमेसो केवली जोगणिरोहणट्ठमीहमाणो बादरकायजोगावटुंभवलेण वादरमणजोगं णिरुभदि, बादरकायजोगेण वावरतो चेव एसो बादरमणजोगसत्ति णिरुभियूण सुहुमभावेण सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तसन्चजहण्णमणजोगादो हेट्ठा असंखेज्जगुणहीणसरूवेण तं ठवेदि त्ति वुत्तं होइ ।
विधिसे केवलिसमद्धातका उपसंहार करके स्वस्थानमें विद्यमान केवली जिनके संख्यात हजार स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकके समयके अविरोधपूर्वक हो जानेपर तदनन्तर योगनिरोध करता हुआ इन दूसरो क्रियाओंको रचता है, इसका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर-काययोगकेद्वारा बादर-मनोयोगका निरोध करता है।
६ ३५३ मन, वचन और कायकी चेष्टा प्रवृत्त करनेकेलिये कर्मके ग्रहणके निमित्त शक्तिरूप जो जीवका प्रदेशपरिस्पन्द होता है वह योग कहा जाता है। परन्तु वह तीन प्रकारका हैमनोयोग, वचनयोग और काययोग। इनका अर्थ सुगम है, उनमेंसे एक-एक अर्थात् प्रत्येक दो प्रकारका है-बादर और सूक्ष्म । योगनिरोधक्रियाके सम्पन्न होनेके पहले सर्वत्र बादरयोग होता है। इससे आगे सक्ष्मयोगसे परिणमनकर योगनिरोध करता है. क्योंकि बादर योगसे ही प्रव केवली जिनके योगका निरोध करना नहीं बन सकता है। उसमें सर्वप्रथम यह केवली जिन योगनिरोधकेलिये चेष्टा करता हुआ बादरकाययोगके अवलम्बनके बलसे बादर मनोयोगका निरोध करता है, क्योंकि बादर काययोगरूपसे व्यापार (प्रवृत्ति ) करता हुआ ही यह केवली जिन बादर मनोयोगको शक्तिकानिरोध करके सूक्ष्मरूपसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तके सबसे जघन्य मनोयोगसे घटते हुए असंख्यात गुणहीनरूपसे उसे स्थापित करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
१. ता० प्रती आगदेसु इति पाठः । २. आ०.प्रती० जोगस्सत्ति इति पाठः ।