Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 185
________________ १५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुढे पिच्छिमखंध-अत्याहियार ६३३३ प्रथमममये तावइंडसमुद्धातं करोतीत्यर्थः। किंलक्षणो सो दंडसमुद्धात इति चेदुच्यते-अंतोमुहुत्ताउगे सेसे केवली समुद्धातं करेमाणो पुव्वाहिमुहो उत्तराहिमुहो वा होदण काउस्सग्गेण वा करेदि पलियंकासणेण वा। तत्थ काउस्सग्गेण दंडसमुद्धादं कुणमाणस्म मूलसरीरपरिणाहेण देसूण चोद्दसरज्जुआयामेण दंडायारेण जीवपदेसाणं विमप्पणं दंडममुग्धादो णाम । एत्थ 'देसूण' पमाणं हेट्ठा उवरिं च लोयपेरंतवादवलयरुद्धखेत्तमेत्तं होदि ति ददुव्वं; सहावदो चेव तदवत्थाए वादवलयभंतरे केव लिजीवपदेसाणं पवेसाभादो । एवं चेव पलियंकासणेण समुहदस्स वि दंडसमुग्घादो वत्तव्यो। णवरि मूलसरीरपरिट्ठयादो दंडसमुग्घादपरिदुओ तत्थ तिगुणो होदि । कारणमेत्य सुगम । एवं विहो अवत्थाविसेसो दंडसमुग्घादो त्ति भण्णदे । अन्वर्थसंज्ञाविज्ञानात् दंडाकारेण यथोक्तविधिना जीवप्रदेशानां विमर्पणं दंडसमुद्धात इति । एदम्मि पुण दंडसमग्पादे वट्टमाणस्स ओरालियकायजोगो चेव होइ; तत्थ सेसजोगाणमसंभवादो। संपहि एदम्मि दंडसमुग्धादे वट्टमाणेण कीरमाणकज्जभेदपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह-- * तम्हि ट्ठिदीए असंखेज्जे भागे हणइ । ३३३ सर्वप्रथम प्रथम समयमें दण्डसमुद्धात करते हैं, यह इसका भाव है। शका--वह दण्डसमुद्धात क्या लक्षणवाला है ? समाधान--कहते हैं, अन्तमुहूर्तप्रमाण आयुकर्मके शेष रहनेपर केवली जिन समुद्धात करते हुए पूर्वाभिमुख होकर या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्गसे करते हैं या पल्यंकासन से करते हैं। वहाँ कायोत्सर्गसे दण्डसमुद्धातको करनेवाले कवलोके मूल शरीर की परिधिप्रमाण कुछ कम चौदह राजु लम्बे दण्डाकाररूपसे जोवप्रदेशोंका फैलना दण्डसमुद्धात है। यहाँ कुछ कमका प्रमाण लोकके नीचे और ऊपर लोकपर्यन्त वातवलयसे रोका गया क्षेत्र होता है ऐसा यहाँ जानना चाहिये, क्योंकि स्वभावसे ही उस अवस्थामें वातवलयके भीतर केवलो जिनके जीवप्रदेशोंका प्रवेश नहीं होता। इसी प्रकार पल्यंकासनसे समुद्धात करनेवाले केवली जिनके दण्डसमुद्धात कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मूल शरीरकी परिधिसे उस अवस्थामें दण्ड समुद्धातकी परिधि तिगुणी हो जाती है। यहाँ कारणका कथन सुगम है। इस प्रकारको अवस्थाविशेषका नाम दण्डसमुद्धात कहा जाता है, क्योंकि सार्थक संज्ञाके ज्ञानवश यथोक्तविधिसे दण्डाकाररूपसे जोवके प्रदेशोंका फैलना दण्डसमुद्धात है। परन्तु इस दण्ड-समुद्धातमें विद्यमान केवली जिनके औदारिककाय-योग ही होता है, क्योंकि उस अवस्थामें शेष योगोंका अभाव है। अब इस दण्डसमुद्धातमें विद्यमान केवली जिनके द्वारा किये जानेवाले कार्योंके भेदोंका कथन करनेकेलिये आगे का सूत्र कहते हैं * केवली जिन दण्डसमुद्धातमें ( आयु कर्मको छोड़कर ) शेष अधातिकर्मों के असंख्यात बहुभागका हनन करते हैं ।

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