Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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१३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा चेव चुण्णिसुत्तयारेण दोण्हमेदासि मूलगाहाणं समुक्कित्तणा विहासा च णाढत्ता, सुगमत्थपरूवणाए गंथगउरवं मोत्तूण फलविसेसाणुवलंमादो त्ति ।
६३०२ अधवा एदिस्से मूलगाहाए अत्थो उवरिमचूलियागाहाहिं बुच्चीहिदि त्ति तत्थेव तण्णिण्णयं कस्सामो। एवमेतावता प्रबंधन क्षीणकषायचरिमसमये घातिकमंत्रयस्य निरवशेषप्रक्षयमुपदिश्य सांप्रतं तदनन्तरसमये केवलज्ञानमुत्पाद्य नवकेवललब्धिपरिणतः परमस्नातकगुणस्थानं प्रतिपद्य भगवान् सयोगी केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जायत इत्येतत्प्रतिपादयितुकामः सूत्रमुत्तरं पठति
* तदो अणंतकेवलणाण-दसण-वीरियजुत्तो जिणो केवली सव्वण्हो सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो त्ति भण्णइ ।।
६३०३ततो घातिकर्मक्षयानन्तरसमये भ्रष्टबीजवन्निःशक्तीकृताघातिचतुष्टयस्समुद्भुतानन्तकेवलज्ञानदर्श नवीर्ययुक्तः स्वयम्भत्वमात्मसात्कुर्वन् जिनः केवली सर्वज्ञः सवदर्शी च जायते । स एव भगवानहत्परमेष्ठी सयोगिजिनश्चेति भण्यते, तत्र तदवस्थायां वाक्कायपरिस्पंदलक्षणस्य योगविशेषस्येर्यापथबंधहेतोः सद्भावादिति सूत्रार्थः ।
गाथाओंको समुत्कीर्तना और विभाषा आरम्भ नहीं की है, क्योंकि यह मूलगाथा सुगम अर्थकी प्ररूपणा करती है, इसलिये । यदि इनकी भाष्यगाथाएँ लिखी जाती तो ] ग्रन्थको गुरुता [ बढ़ जाने ] को छोड़कर उससे कोई फलविशेष प्राप्त होनेवाला नहीं है।
६३०२ अथवा इस मूलगाथाका अर्थ आगे चूलिका गाथाओंद्वारा कहेंगे, इसलिये वहीं पर उसका निर्णय करेंगे। इस प्रकार इतने प्रबन्धकेद्वारा क्षीणकषायगुणस्थानके अन्तिम समयमें तीन घातिकर्मोंके पूरे क्षयका उपदेश करके अब क्षीणकषाय गुणस्थानके अनन्तर समयमें केवलज्ञानको उत्पन्न करके नव केवललब्धिसे परिणत होता हुआ परम स्नातक गुणस्थानको प्राप्त करके भगवान् सयोगिकेवल सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है । इस प्रकार इस तथ्यके प्रतिपादनको इच्छा रखनेवाले परमर्षि यतिवृषभ आगेके सूत्रको कहते हैं
8 तदनन्तर अनन्त केवलज्ञान, अनन्त केवलदर्शन और अनन्त वीर्यसे संयुक्त होता हुआ जिन, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है । उसोको सयोगी जिन कहते हैं ।
६.३०३ तदनन्तर घातिकर्मोंके क्षय होनेके अनन्तर समयमें भ्रष्ट बीजके समान जिसने चार अघाति कर्मोंको निःशक्त कर दिया है और जो अनन्त केवलज्ञान, अनन्त केवलदर्शन और अनन्त वीर्यसे संयुक्त हो गया है; ऐसा होकर जो स्वयम्भू होनेसे आत्माधीनपनेको प्राप्त होता हुआ जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है, वही भगवान् अर्हत्परमेष्ठो और सयोगी जिन कहा जाता है। वहाँ उस अवस्थामें ईर्यापथ बन्धका हेतु होनेसे वचन और कायके परिस्पन्दलक्षण-योगविशेषका सद्भाव रहता है, यह इस सूत्रका अर्थ है। १. आ० प्रती वुव्वीहिदि इति पाठः ।