Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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पच्छिमक्खंधमग्गणा
जे मोहसेण्णपच्छिमक्खधं भेत्तृण अग्गिमक्खंधे । लद्धजया सुद्धगुणा जसुब्भडा ते जयंति मुणिसुहडा ॥६॥ इति पञ्च गुरूनेतान् प्रणम्य कृतमङ्गलः ।।
वक्ष्यामि पश्चिमस्कन्धं श्रुतस्कन्धानचूलिकाम् ।। ७ ।। * पच्छिमक्खंधे त्ति अणियोगहारे तम्हि इमा मग्गणा ।
$ ३२५ पच्छिमक्खधे त्ति जो सो अथाहियारो सयलसुदक्खंधस्स चूलियाभावेण समवविदो तम्मि वक्खाणिज्जमाणे तत्थ इमा मग्गणा अहिकीरदित्ति वुत्तं होइ । पश्चाद्भवः पश्चिमः, पश्चिमश्चासौ स्कन्धश्च पश्चिमस्कंधः । खीणेसु घादिकम्मेसु जो पच्छा समुवलब्भइ कम्मइयक्खंधो अघाइचउक्कसरूवो सो पश्चिमक्खंधो त्ति भण्णदे, खयाहिमुहस्स तस्स सव्वपच्छिमस्स तहा ववएससिद्धीए गाइयत्तादो। अहवा खीणावरणिज्जेसु केवलीसु जो समुवलब्भइ चरिमोरालियसरीरणोकम्मक्खंधो तेजोकम्मइयसरीरसहगदो सो वि पच्छिमक्खंधो त्ति घेत्तव्वो, सव्वपच्छिमत्तादो । पच्छिमकम्मइयक्खंधचरिमोरालियसरीरक्खंधसंबंधो सजोगिकेवलीणं जो जीवपदेसक्खंधो सो वि पच्छिमक्खंधो त्ति एत्थ वक्खाणेयव्यो; केवलि समुग्घाद जोगणिरोहादिकिरियाणं तव्विसयाण
जिन्होंने मोहरूपी सेनाके अन्तिम स्कन्धको भेदकर अग्रिमस्कन्धमें जयको प्राप्त किया है, जो शुद्ध गुणोंसे युक्त हैं और जो अक्षुण्णकीर्तिके धनी हैं वे मुनि सुभट जयवन्त हों ।। ६ ॥
इसप्रकार इन पाँच गुरुओंको प्रणाम करके मंगलाचरणको सम्पन्न करनेवाला मैं श्रुतस्कन्धकी मुख्य चूलिकास्वरूप पश्चिमस्कन्धका व्याख्यान करूंगा ॥ ७॥
* पश्चिमस्कन्ध नामक अनुयोगद्वारमें यह मार्गणा अधिकृत है ।।
६३२५ पश्चिमस्कन्ध नामका जो यह अर्थाधिकार है वह समस्त श्रुतस्कन्धको चूलिकारूपसे अवस्थित है, उसका व्याख्यान करनेपर उसमें यह मार्गणा अधिकृत है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जो अन्तमें होता है वह पश्चिम है । पश्चिम जो स्कन्ध वह पश्चिमस्कन्ध है। घाति कर्मोके क्षीण हो जानेपर जो अघातिचतुष्कस्वरूप कर्मस्कन्ध पश्चात् उपलब्ध होता है वह पश्चिमस्कन्ध कहा जाता है, क्योंकि क्षयके अभिमुख हुए सबसे अन्तिम उसको उस प्रकारको संज्ञाकी सिद्धि न्यायप्राप्त है। अथवा जिनके आवरण कर्म क्षीण हो गये हैं ऐसे केवलियोंके जो तैजस शरीर और कार्मण शरीरके साथ प्राप्त होनेवाला अन्तिम औदारिक शरीर नोकर्मस्कन्ध होता है सो वह भी पश्चिमस्कन्ध है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये. क्योंकि वह सबसे अन्तिम है। तथा अयोगिकेवलीके अन्तिम कार्मणस्कन्धके साथ अन्तिम औदारिक शरीरस्कन्धसे सम्बद्ध जो जीवप्रदेशस्कन्ध है वह भी पश्चिमस्कन्ध है ऐसा यहाँ व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि तद्विषयक केवलिसमुद्रात और
१. आ. ता. प्रत्योः जसुब्भदा इति पाठः । २. आ० ता. प्रत्योः सुहदा इति पाठः ।