Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार मेस्थाहियारे णिरूवणोवलंभादो। तदो एवं विहस्स सव्वस्स पच्छिमक्खंधस्स परूवणादो एसो अस्थाहियारो पच्छिमक्खंधो त्ति घेत्तव्यो ।
३२६ णेदमेत्थासंकणिज्जं; पण्णारसमहाहियारेहिं असीदिसदमूलगाहासु सभासगाहासु पडिबद्धत्थवत्तव्वएहिं कसायपाहुडे वित्थारेण परूविय समत्ते संते पुणो किमट्टमेदम्स पच्छिमक्खंघसण्णिदस्स अस्थाहियारस्स समोदारो ति । किं कारणं ? खवणाहियारसंबधेणेव पच्छिमक्खंधावयारम्भुवगमादो । ण चाधादिकम्माणं खवणाए विणा खवणाहियागे संपुण्णा होइ, विरोहादो । तम्हा खवणाहियारसंबंधेणवतस्स चूलियाभावेणेसो पच्छिमक्खंधाहियारो परूविज्जदि त्ति सुसंबद्धमेदं । महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउवीसाणियोगद्दारेसु. पडिबद्धो एसो पच्छिमक्खंधाहियारो कधमत्थ कसायपाहुडे परूविज्जदि त्ति, णासंका कायव्वा, उहयत्थ वि तस्स पडिबद्धत्तम्भुवगमे बाहाणुवलंभादो।
$ ३२७ ततः सूक्तमेवं प्रसिद्धसंबंधो यः पश्चिमस्कन्ध इत्यधिकारः समस्तश्रुतस्कन्धस्य चूलिकाभावेन व्यवस्थितस्तमिदानों व्याख्यास्यामः । तत्र चेयमर्थमार्ग
योगनिरोध आदि क्रियाओंका इस अधिकारमें निरूपण उपलब्ध होता है। इसलिये इस प्रकारके पूरे पश्चिमस्कन्धका प्ररूपण करनेवाला होनेसे यह अर्थाधिकार पश्चिमस्कन्ध है ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
$ ३२६ यहाँपर ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये कि भाष्यगाथाओंके साथ एक सौ अस्सी मूलगाथाओंके साथ सम्बन्ध रखनेवाले अर्थके व्याख्यानद्वारा कषायप्राभृतके विस्तारसे प्ररूपण करके समाप्त होनेपर फिर किसलिये पश्चिमस्कन्ध संज्ञावाले इस अर्थाधिकारका अवतार किया जा रहा है, क्योंकि क्षपणाधिकारके सम्बन्धसे ही पश्चिमस्कन्धका अवतार स्वीकार किया है । और अघातिकर्मोंको क्षपणाके बिना क्षपणाधिकार सम्पूर्ण नहीं होता है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने में विरोध आता है, इसलिये क्षपणाधिकारके सम्बन्धसे ही उसको चूलिकारूपसे इस पश्चिमस्कन्ध अधिकारका प्ररूपण किया जा रहा है, इस प्रकार यह सब सुसम्बद्ध ही है।
शंका-महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीस अनुयोगद्वारोंसे सम्बन्ध रखनेवाले इस पश्चिमस्कन्ध नामक अधिकारका यहाँ कषायप्राभृतमें कैसे प्ररूपण किया जा रहा है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि महाकर्मप्रकृतिप्राभूत और कषायप्राभृत दोनों हो आगमोंमें उसका सम्बन्ध स्वीकार करनेमें बाधा नहीं उपलब्ध होती।
६ ३२७ इसलिये हमने यह अच्छा हो कहा है कि प्रसिद्ध सम्बन्धवाला जो पश्चिमस्कन्ध नामक अधिकार है वह पूरे श्रुतस्कन्धका चूलिकारूपसे व्यवस्थित है, उसका इस समय व्याख्यान
१. आ० प्रती णिरूवमाणावलंभादो इति पाठः ।