Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २३३ ]
परूवणा, पुव्वमेव विहासियत्तादो। एतो अंतरकरणे कदे मोहणीयस्साणुपुव्वीसंकमो rate परिवाडी पट्टदि त्ति जाणावणद्वमुवरिमाओ तिष्णि सुत्तगाहाओ पढइ
* सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुव्वी य संकमो होइ । लोभकसाये णियमा असंकमो होइ बोद्धव्वो ॥३॥ * संछुहृदि पुरिसवेदे इत्थवेदं णव सयं चेव । सप्तेव णोकसाये णियमा कोपम्हि संछुहदि ॥ ४ ॥ * कोहं संछुहइ माणे माणं मायाए नियमसा छुहइ । मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥५॥
$ ३१८ गतार्थत्वान्नात्र किंचिद् व्याख्येयमस्ति एत्तो छट्ठी सुत्तगाहा-
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* जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधम्हि होइ संछुहणा । बंधेण हीणदरगे अहिये वा संकमो णत्थि || ६ ||
प्ररूपणा सुगम है, क्योंकि इसकी पहलेही विभाषा कर आये हैं । इसके आगे अन्तरकरण करलेनेपर मोहनीय कर्मका आनुपूर्वी संक्रम इस परिपाटीसे प्रवृत्त होता है, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगे तीन सूत्रगाथाओं को पढ़ते हैं
* आगे मोहनीयकर्म की सब प्रकृतियोंका आनुपूर्वी संक्रम होता है । किन्तु arretreat नियमसे संक्रम नहीं होता, ऐसा जानना चाहिये || ३ ॥
* स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका नियमसे पुरुषवेदमें संक्रमण करता है । तथा पुरुषवेद सहित सात नोकषायका नियमसे क्रोधसंज्वलन में संक्रमण करता है ||४||
* वह क्षपक क्रोधसंज्वलनको नियमसे मानसंज्वलन में संक्रान्त करता है, - मानसंज्वलनको नियमसे मायासंज्वलनमें संक्रान्त करता है । तथा मायासंज्वलनको नियमसे लोभसंज्वलनमें संक्रान्त करता है । इनका प्रतिलोमविधिसे संक्रम नहीं होता ||५||
३१८ इन सूत्रगाथाओं का अर्थ ज्ञात हो जानेसे इनके विषय में कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है । अब इसके आगे छठी सूत्रगाथा कहते हैं
* जो जीव जिस बध्यमान प्रकृतिमें संक्रमण करता है उसका नियमसे बन्धमें ही संक्रमण होता है । तथा उसका बन्धसे हीनतर स्थिति में भी संक्रमण करता है, किन्तु बन्धसे अधिकतर स्थितिमें संक्रमण नहीं होता || ६ ||
१. कोहस्स ता० ।