Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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[चारित्तक्खवणा
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे खवणाभावं पि उवेक्खदे । 'बंधोदयणिज्जरा वा वि' एवं पदं खीणकसायस्स गुणसेढिणिज्जराविहाणं तत्थ द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधपडिसेहदुवारेण पयडिबंधस्सेव संभवमुदयादीरणविसेसं च सूचेदि त्ति घेत्तव्यं । एवमेत्तिये अत्थे विहासिदे तदो एसा खीणमोहपडिबद्धा मलगाहा समत्ता भवदि ।
* संपहि एत्थेवुद्देसे एक्का संगहणमलगाहा विहासेयव्वा ।'
$ २९९ जहावसरपत्तत्तादो। को संगहो णाम ? चरित्तमोहणीयस्स वित्थरेण पुव्वं परूविदखवणाए दबट्ठियसिस्सजणाणुग्गहढे संखेवेण परूवणा संगहो णामः । तदो पुव्वुत्तासेसत्थोवसंहारमूलगाहा संगहणमूलगाहा त्ति भण्णदे।
* तिस्से समुक्कित्तणा। * (१८०) संकामणमोवट्टण किट्टी खवणाए खीणमोहंते ।
खवणा य प्राणपुवी बोद्धव्वा मोहणीयस्स ॥२३३॥
उस समय अपेक्षा करता है। 'बंधोदयणिज्जरा वा पि' इस प्रकार यह पद क्षीणकषाय जीवके गुणश्रेणि निर्जराविधिको तथा वहाँ स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धके प्रतिषेधद्वारा प्रकृतिबन्ध सम्बन्धी ही सम्भव उदय और उदोरणाविशेषको सूचित करता है ऐसा यहाँ उक्त पदोंके अर्थको ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार इतने अर्थको विभाषा करनेपर इसके बाद क्षीणमोहसे सम्बन्ध रखनेवाली यह मूल सूत्रगाथा समाप्त होती है।
* अब इस स्थानपर एक संग्रहणी मूल सूत्रगाथाकी विभाषा करनी चाहिये । ६ २९९ क्योंकि वह यथावसर प्राप्त है । शंका-संग्रह किसका नाम है ?
समाधान-चारित्रमोहनीयकी पहले विस्तारसे प्ररूपणा कर आये हैं उसका द्रव्यार्थिक शिष्यजनोंका अनुग्रह करनेकेलिये संक्षेपसे प्ररूपणा करनेका नाम संग्रह है। इसलिये पूर्वोक्त समस्त विषयका थोड़ेमें उपसंहार करनेवाली मूल सूत्रगाथा संग्रहणी मूलगाथा कही जाती है । ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
के अब उसको समुत्कीर्तना करते हैं।
* (१८०) क्षीणमोह गुणस्थानके अन्त होनेके पूर्व तक अर्थात् मोहनीय कर्मके क्षय होनेके अन्त तक संक्रमणा, अपवर्तना और कृष्टिक्षपणाके क्रमसे मोहनीयकर्मकी आनुपूर्वीसे क्षपणा जाननी चाहिये ॥ २३३ ॥ १. आ० प्रतौ सूत्रमिदं चूणिसूत्ररूपेण नोपलभ्यते; ता० प्रतौ तु च कोष्ठकान्तर्गतमिदं वाक्यमुपलभ्यते
चूर्णिसूत्ररूपेण ।