Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
१२६
जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
याणं खीणकसायचरिमसमये उप्पादाणुच्छेदणयेण णिम्मूलपरिक्खओ त्ति सिद्धं । एत्थ 'खओ' त्ति वुत्ते कम्मक्खंधाणं जीवावयवेहिं सह बंधं पडि एयत्तेण परिणदाणं बंधकारणपडिवक्खमोक्खकारण परिणामजंतेहिं पेल्लिज्जमाणाणं जीवादो जं निम्मूलदो ओसरणं सो खओ त घेत्तन्वो, जीवादो पुधभावेण अकम्मसरूवेण परिणदाणं पि कम्मपोग्गलाणं पोग्गलसरूवेण परिक्खयाणुवलभादो । ततो यथा मणेर्मलादेर्व्यावृत्तिः क्षयः, सतोऽत्यन्तविनाशानुपपत्तेस्तादृगात्मनोऽपि कर्मणां निवृत्तौ परिशुद्धिः ।
* एत्थुद्दे से खीणमोहद्धाए पडिबद्धा एक्का मूलगाहा विहासियव्वा ।
९ २९६ पत्तावसरत्तादो ।
* तिस्से समुत्तिणा ।
* (१७९) खीणेसु कसायेसु य सेसाणं के व होति वीचारा । खवणा वा अखवणा वा बंधोदयणिज्जरा वापि ॥ २३२ ॥
रूपी अग्निशिखाकेद्वारा कवलित हुए घातिकर्मोंका ही क्षीणकषायके अन्तिम समयमें उत्पादानुच्छेदनयकी अपेक्षा निर्मूल क्षय हो जाता है, यह सिद्ध होता है ।
यहाँ पर 'क्ष' ऐसा कहनेपर कर्मस्कन्ध संसारी जीवोंके समस्त प्रदेशोंके साथ बन्धकी अपेक्षा एक रूप परिणत हो रहे हैं, बन्धके कारणों के प्रतिपक्षभूत मोक्ष के कारणरूप परिणामरूप . यन्त्रकेद्वारा पेले जानेवाले उनका जीवसे पूरी तरहसे अपसरण हो जाना, उसका नाम क्षय है, ऐसा "यहाँ पर ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जीवसे पृथक् होकर अकर्मरूपसे परिणत हुए कर्मपुद्गलों का पुद्गलरूपसे सर्वथा क्षय नहीं हो सकता। इसलिये जिस प्रकार मणिसे मलादिककी निवृत्ति क्षय कहलाती है, क्योंकि सत्का सर्वथा विनाश नहीं हो सकता उसी प्रकार आत्मासे भी कर्मों की निवृत्ति पर परिशुद्धि होती है ।
* इस स्थानपर क्षीणमोहके कालसे सम्बन्ध रखनेवाली एक मूल गाथाकी विभाषा करनी चाहिये ।
९ २९६ क्योंकि वह अवसरप्राप्त है ।
* उसकी समुत्कीर्तना-
* (१७९) कषायों के क्षीण हो जानेपर शेष ज्ञानावरणादिकमोंके कितने क्रियापरिणाम होते हैं ? उनकी क्षपणा होती है या नहीं होती ? बन्ध, उदय और निर्जरा क्या होती है || २३२ ॥
१. ता० प्रतौ इदं वाक्यं चूर्णिसूत्ररूपेणोपलभ्यते ।