Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २३१ ] पयलाणं संतोदयवोच्छेदं कुणदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो। संपहि खीणकसायचरिमसमये कीरमाणकज्जभेदपदुप्पायणमुत्तरसुत्तावयारो
* तदो णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमेगसमएण संतोदयवोच्छेदो।
६२९५ तिण्हमेदेसि घादिकम्माणमेयत्तवियक्कावीचारसुक्कझाणेण जहाकम खविज्जमाणाणं खीणकसायचरिमसमए अक्कमेण संतोदयाणमच्चतुच्छेदो जादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो। घादिकम्माणं व अधादिकम्माणं पि एत्थेव खीणकसायचरिमसमये जिम्मूलपरिक्खओ किण्ण जायदे, कम्मत्तं पडि विसेसाभावादो त्ति णासंकणिज्जं, घादिकम्माणं व अधादिकम्माणं विसेसघादाभावेण तेसिमज्ज वि पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागमेत्तहिदिसंतकम्मस्स समुवलंभादो। ण च तत्थ विसेसघादाभावो असिद्धो, घादिकम्माणं व तेसि सुट्ट, अप्पसत्थभावाभावमस्सियण तत्थ विसेसघादाभावसमत्थणादो। तम्हा घादिकम्मत्ताविसेसे वि जहा मोहणीयस्सेव सुट्ट, अप्पसत्थभावेण पुव्वमेव विसेसघादवसेण सुहुमसांपराइयचरिमसमये विणाससिद्धी एवं कम्मत्ताविसेसे वि अघादिकम्मपरिहारेण धादिकम्माणं चेव बिदियसुक्कज्झाणाणलसिहाकवलि
यहाँ पर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब क्षीणकषायगुणस्थानके अन्तिम समयमें किये जानेवाले कार्यभेदका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार करते हैं
* तदनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंकी एक समयद्वारा सत्त्व और उदयव्युच्छित्ति हो जाती है ।
६२९५ एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानद्वारा क्रमसे क्षयको प्राप्त होनेवाले इन तीनों घातिकर्मोंकी क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें युगपत् सत्त्व और उदयकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इस प्रकार यह यहाँ इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है ।
शंका-जैसे घातिकर्मोंका यहाँ पर क्षय हो जाता है उसी प्रकार अघातिकर्मोंका भी यहीं क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें निमूल क्षय क्यों नहीं हो जाता, क्योंकि कर्मपनेकी अपेक्षा उन दोनोंमें कोई भेद नहीं है ?
समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि घातिकर्मोंके समान अघातिकर्मोंका विशेष घात नहीं होनेके कारण उनका अब भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म समुपलब्ध होता है। और इन कर्मोके विशेष घातका अभाव असिद्ध नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोंके समान उनमें विशेष अप्रशस्तपनेका आभाव है, इसलिये इस अपेक्षासे उनके विशेष घातके अभावका समर्थन होता है । इसलिये घातिकर्मपनेकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी जैसे मोहनीयकर्मके अत्यन्त अप्रशस्तपनेके कारण पहले ही विशेषघातवश सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें विनाशकी सिद्धि होती है । इस प्रकार कर्मपनेकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी अघातिकर्मोको छोड़कर शुक्लध्यान