Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा ६ २९३ संपहि एत्तो उवरि कीरमाणकज्जमेदपदुप्पायणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो* तदो दुचरिमसमये णिद्दापयलाणमुदयसंतवोच्छेदो ।
F२९४ खीणकसायस्स चरिमसमयादो हेडिमाणंतरसमयो दुचरिमसमयो णाम । तम्हि दोण्हमेदासि दसणावरणपयडीणमक्कमेण संतोदयवोच्छेदो जादो त्ति वुत्तं होइ । कधं पुण एदस्स खीणकसायस्स बिदियसुकज्झाणग्गिणा धादिकम्मिधणाणि दहमाणस्स एदम्मि अवत्थंतरे णिद्दापयलाणमुदयवोच्छेदसंभवो, झाणपरिणामविरुद्धसहावत्तादो त्ति णासंकणिज्ज, अवत्तव्वसरूवस्स तदुदयस्य झाणोवजुत्तेसु संभवं पडि विरोहाभावादो। तम्हा एसो खीणकसाओ सगद्धाए आदीदो पहुडि केत्तियं पि कालं पढमसुक्कज्झाणं पुधत्तवियक्कवीचारसण्णिदमणुपालिय तदो सगद्धाए संखेज्जदिभागावसेसे विदियसुक्कज्झाणमेयत्तवियक्कवीचारसण्णिदमत्थवंजणजोगसंकंतिविरहिदमणुसंधेयूण ज्झायमाणो अवविदजहाक्खादविहारसुद्धिसंजमपरिणामत्तादो अवविदगुणसेढिणिक्खेवेण पडिसमयमसंखेज्जगुणं कम्मणिज्जरं करेमाणो अपणो दुचरिमसमये णिहा
$ २९३ अब इससे आगे किये जाने वाले कार्योंके भेदोंका प्रतिपादन करनेकेलिये आगेका सूत्र प्रबन्ध आया है
* तत्पश्चात् क्षीणकषायगुणस्थानके द्विचरम समय में निद्रा और प्रचलाकी उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति होती है।
६ २९४ क्षीणकषायगुणस्थानके अन्तिम समयसे पूर्व अनन्तर समयका नाम द्विचरम समय है। उस कालमें इन दोनों दर्शनावरणसम्बन्धी प्रकृतियोंकी युगपत् उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति हो जाती है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-दूसरे शुक्लध्यानरूपी अग्निकेद्वारा घातिकर्मरूपो ईधनको जलानेवाले इस क्षीणकषाय जीवके इस अवस्थाविशेषमें निद्रा और प्रचला प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्ति कैसे सम्भव है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके उदयसे होनेवाले परिणाम ध्यानपरिणामके विरुद्ध स्वभाववाले हैं ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियोंका उदय इस स्थानमें अवक्तव्यस्वरूप है, इसलिये ध्यानमें उपयुक्त हुए क्षपक जीवोंमें उसके स्वभाव होनेमें कोई विरोध नहीं पाया जाता।
इसलिये यह क्षीणकषाय क्षपक अपने कालमें प्रारम्भसे लेकर कितने ही काल तक पृथक्त्ववितर्कवीचार संज्ञावाले प्रथम शुक्लध्यानको पालन करके तदनन्तर अपने कालमें संख्यातवेंभागप्रमाण कालके शेष रहनेपर अर्थ, व्यंजन और योगको संक्रान्तिसे रहित एकत्ववितर्क-अवीचार संज्ञावाले दूसरे शुक्लध्यानका अनुसन्धानपूर्वक ध्यान करता हुआ अवस्थित यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमरूप परिणामवाला होनेसे अवस्थित गुणश्रेणिनिक्षेपद्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करता हआ अपने द्विचरमसमयमें निद्रा और प्रचलाकी सत्त्व और उदयव्युच्छित्ति करता है । इस प्रकार यह