Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २३१ ] कम्मोदयेणेव णिज्जरेदि त्ति घेत्तव्वं । सपहि एदस्सेवत्थविसेसस्स फुडीकरणट्टमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* एवं जाव चरिमसमयाहियावलियछदुमत्थो ताव तिएहं घादिकम्माणमुदीरगो।
$ २९२ एवमेदीए अणंतरपरूविदासेसपरूवणाए उवलक्खिओ ताव तिण्डं घादिकम्माणमुदीरगो जाव समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थो त्ति, तत्तो परं कम्मोदयं मोत्तण घादिकम्माणमावलियपविट्ठपदेससंतकम्मरसुदीरणासंभवादो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । अत्रान्तमुहूर्तकालं क्षीणकषायस्य प्रथमशुक्लध्यानानुसंधानपूर्विका द्वितीयशुक्लध्यानपरिणतिविस्तरतोऽनुगंतव्या, सुविशुद्धशुक्लध्यानपरिणाममंतरेण कर्मनिर्मूलनानुपपत्तेरिति । अत्रोपयोगिनौ श्लोको
शान्तक्षीणकषायस्य पूर्वज्ञस्य त्रियोगिनः । शुक्लाद्यं शुक्ललेश्यस्य मुख्यं संहननस्य तत् ।।२॥ द्वितीयस्याद्यवत्सर्वं विशेषस्त्वेकयोगिनः । विघ्नावरणरोधार्थ क्षीणमोहस्य तत्स्मृतम् ॥३॥
इति
होतो, केवल कर्मों की उदयरूपसे ही निर्जरा होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। अब इसी अर्थविशेषको स्पष्टकरने के लिये आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
* इस प्रकार जब तक छद्मस्थके एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहता है तब तक तीन घातिकर्मोंका उदीरक होता है ।
६२९२ इस प्रकार इस अनन्तर पूर्व कही गई सम्पूर्ण प्ररूपणासे उपलक्षित यह क्षपक तब तक तीन घातिकर्मोंका उदीरक होता है जब तक कि छद्मस्थके एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहता है, क्योंकि उससे आगे कर्मोदयको छोड़कर घातिकर्मोकी उदयावलिमें प्रविष्ठ हुए सत्कर्मको उदीरणा असम्भव है, यह इस सूत्रका भावार्थ है। यहाँ पर अन्तमुहूर्तकाल तक क्षोणकषाय क्षपकके प्रथम शुक्लध्यानके अनुसन्धानपूर्वक दूसरे शुक्लध्यानकी परिणतिको विस्तारसे जान लेना चाहिये, क्योंकि सुविशुद्ध शुक्लध्यानरूप परिणामके बिना कर्मका निर्मूलन करना नहीं बन सकता है। यहाँ पर दो उपयोगी श्लोक हैं
जिसकी कषाय उपशान्त या क्षीण हो गई है, जो पूर्वज्ञ है, तीन योगवाला और शुक्ल लेश्यावाला है तथा जो आदिके तीनमें से कोई एक संहननवाला है या मात्र वज्रर्षभसंहननवाला है, उसके प्रथम शुक्लध्यान होता है ॥ २ ॥
तथा जो द्वितीय शुक्लध्यानवाला होता है उसके अन्य सब बातें पहले शुक्लध्यान के समान होती हैं। मात्र उसके इतनी विशेषता होती है कि उसके तीनमें से कोई एक योग पाया जाता है। इस प्रकार अन्तराय कर्म तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका निरोध करनेकेलिये यह सब विशेषता क्षीणमोह जिनके जान लेनी चाहिये ।। ३ ॥