Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे
[ चारितक्खवणा
$ ३०५ एवं केवलदर्शनमपि व्याख्येयम् । तत्समकालमेव स्वावरणात्यन्तपरिक्षयाविर्भूतवृत्तेर्दर्शनोपयोगस्यापि निरवशेषपदार्थालोकनस्वभावस्यानन्त्यविशेषित केवलव्यपदेशप्रतिलम्मे प्रतिबंधानुपलंमात् । नैतदिह मंतव्यम् । ज्ञानदर्शनोपयोगयोः सकलावस्थयोरविशेषो विषय मेदानुपलब्धेद्वेयोरप्यशेषपदार्थ साक्षात्करणस्वाभाव्ये तत्रैकेनैव कृतत्वादितरोपयोगवैयर्थ्याच्चेति, कस्मादसंकीर्णस्वरूपेण तयोर्विषयविभागस्यासकृदुपदर्शितत्वात् तस्मात्सकलविमल केवलज्ञानवदकलंक - केवलदर्शनमपि कैवल्यावस्थायामस्त्येवेति सिद्धम्, अन्यथाऽऽगमविरोधादिदोषाणामपरिहार्यत्वादिति ।
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६३०६ वीर्यान्तरायनिर्मूलप्रक्षयोद्भूतवृत्ति-श्रमक्लमाद्यवस्थाविरोधि-निरन्तरायबीर्यमप्रतिहतसामर्थ्यमनन्तवीर्यमित्युच्यते । तत्पुनरस्य भगवतोऽशेषपदार्थविषयध्रुवोपयोगपरिणामेऽप्यखेदभावोपग्रहे प्रवर्तमानं सोपयोगमेवेति प्रतिपत्तव्यम् । तद्बलाधानेन विना सांत तिकोपयोगवृत्तेरनुपपत्तेः, अन्यथाऽस्मदाद्युपयोगवत्तदुपयोगवदुपयोगस्यापि । सामर्थ्य विरहादनवस्थानप्रसंगादिति । तथोक्तं—
तव वीर्य विघ्नविलयेन समभवदनन्तवीर्यता ।
तत्र सकलभुवनाधिगमप्रभृतिस्वशक्तिभिरवस्थितो भवानिति ॥ १ ॥
§ ३०५ इसी प्रकार केवलदर्शनका भी व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि केवलज्ञानके समान ही अपना आवरण करनेवाले दर्शनावरण कर्मके अत्यन्त क्षय होनेसे वृत्तिको प्राप्त होनेवाले और समस्त पदार्थो के अवलोकन स्वभाववाले दर्शनोपयोगके भी अनन्त विशेषणसे युक्त केवल संज्ञाके प्राप्त होनेपर कोई प्रतिबन्ध नहीं पाया जाता ।
यहाँ ऐसा नहीं मानना चाहिये कि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में कोई भेद नहीं है, क्योंकि दोनों के विषय में भेद नहीं उपलब्ध होता तथा दोनों समस्त पदार्थों के साक्षात्करण स्वभाववाले हैं, इसलिये उन दोनों में एकसे ही कार्य चल जानेके कारण दूसरे उपयोगको मानना व्यर्थं है, क्योंकि असंकीर्णस्वरूपसे उन दोनोंका विषयविभाग अनेक बार दिखला आये हैं । इसलिये सकल और विमल केवलज्ञानके समान अकलंक केवलदर्शन भी केवलरूप अवस्थामें है ही, यह सिद्ध हुआ । अन्यथा आगमविरोध आदि दोषोंका होना अपरिहार्य है ।
६ ३०६ वीर्यान्तराय कर्मके निर्मूल क्षयसे उद्भूतवृत्तिरूप श्रम और खेद आदि अवस्थाका विरोधी अन्तरायसे रहित अप्रतिहत सामर्थ्यवाला वीर्य अनन्त वीर्य कहा जाता है । परन्तु वह इस भगवान् के अशेष पदार्थविषयक ध्रुवरूप (स्थायी) उपयोग परिणामके होनेपर भी अखेद भाव से ग्रहण करनेमें प्रवृत्त होता हुआ उपयोगसहित ही है ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि उसके बलाधान के बिना निरन्तर उपयोगरूप वृत्ति नहीं बन सकती । अन्यथा हम लोगोंके उपयोग के समान अरिहन्त केवलोके उपयोगके भी सामथ्यंके विना अनवस्थानका प्रसंग प्राप्त होता है। कहा भी है
हे भगवन् | आपके वोर्यान्तराय कर्मका विलय हो, जानेसे अनन्त वीर्य शक्ति प्रगट हुई है । अतः ऐसी अवस्था में समस्त भुवनके जानने आदि अपनी शक्तियोंके द्वारा आप अवस्थित हो || १ ||