Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २३१ ]
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जहा वग्गणाए इरियावह कम्मस्स लक्खणपरूवणा वित्थरेण कदा तहा चैव सवित्थरमणुमग्गियन्वा, विसेसाभावादो ।
$ २८८ हेट्ठिमासे सगुणसेढिणिज्जराहिंतो एदस्स गुणसेढिणिज्जरा असं खेज्जगुणा होण पयट्टदि ति वत्तव्वा, संकसायपरिणामणिबंधणगुणसेढिणिज्जराहिंतो अकसायपरिणाम- णिबंधणगुण सेढिणिज्जराए एदिस्से असंखेज्जगुण तसिद्धीए बाहाणवलंभादो ।
$ २८९ संपहि खीणकसायपढमसमये कीरमाणाणं कज्जमेदाणमेदेण सुत्तेण सूचिदाणमणुगमं कस्सामो । तं जहा -- ताघे चैव तिण्डं घादिकम्माण मंतो मुहुत्तमेत्तायाममण्णं डिदिखंडयमागाएदि, तेसिं चेव घादिद- सेसाणुभागस्साणंता भागमेत्तमणुभागखंडयं च . गेव्हह । णामागोदवेदणीयाणं सेसट्ठिदिसंत कम्मस्सासंखेज्जभागमेत्तं द्विदिखंडयं तेसिं चेव अप्पसत्थपयडीण मणुभागसंतकम्मस्साणंत भागमेत्तमणुभागखंडयं च गेण्हइ । पढमसमयखीणकसाओ छण्हें कम्मंसाणं पदेसपिंड मोकड्डियूण गुणसेढि - विष्णास करेमाणो उदये पदेसग्गं थोवं देदि, से काले असंखेज्जगुणं णिक्खिवदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव खीणकसायद्धाए उवरि संखेज्जदिभागमेत्तमद्वाणं गंतूण गुणसेढिसीसयं जादं ति ।
जिस प्रकार वर्गणाखण्ड में ईर्यापथकर्मके लक्षणकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार विस्तार के साथ यहाँ पर जान लेनी चाहिये, क्योंकि उस कथनसे इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है ।
२८८ पहले की समस्त गुणश्रेणि-निर्जराओं से इस क्षपकको गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी होकर प्रवृत्त होती है ऐसा यहाँ जानना चाहिये, क्योंकि कषायसहित परिणामोंके निमित्तसे जो गुण-निर्जरा होती है उससे अकषाय परिणामके निमितसे जो यह गुणश्र णिनिर्जरा होती है उसके असंख्यातगुणी सिद्ध होनेमें बाधा नहीं पायी जाती ।
$ २८९ अब क्षीणकषाय गुणस्थानके प्रथम समय में किये जानेवाले और इस सूत्रद्वारा सूचित होनेवाले कार्यभेदोंका अनुगम करेंगे । यथा - उसी समय तीन घातिकर्मो के अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयामवाले अन्य स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता है तथा घात करनेसे शेष बचे उन्हीं कर्मों के अनुभागसम्बन्धी अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकको ग्रहण करता है । नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोंके शेष रहे स्थितिसत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकको तथा उन्हीं अप्रशस्त प्रकृतियोंसम्बन्धी अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकको ग्रहण करता है । तथा प्रथम समयवर्ती क्षीणकषाय क्षपक छह कर्मोंके प्रदेशपिण्डका अपकर्षण करके गुणश्रेणिकी रचना करता हुआ उदयमें थोड़े प्रदेशोंका निक्षेप करता है; अनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशोंका निक्षेप करता है । इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ जाता है, जब जाकर क्षीणकषाय गुणस्थान के कालके ऊपर संख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर गुणश्रेणि शीर्ष प्राप्त होता है ।
१. 'दट्ठव्वा' प्रेसकापीप्रति ।
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