Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २३१ ]
११९ ६ २८५ सुहुमसांपराइयद्धाए संखेज्जभागमेत्तावसेसे गुणसेढिसीसएण सह मोहणीयचरिमफालिं घादिय तदो जहाकममधहिदीए सगद्धावसेसमेत्तीओ गुणसेढिगोवुच्छाओ अणुसमयमोवहिज्जमाणसुहुमकिट्टीसरूवाणुभागसहगदाओ गालेमाणस्स सुहुमसांपराइयखवगस्स चरिमसमये मोहणीयस्स ट्ठिदिसंतकम्ममणुभागपदेसाविणाभाविखविज्जमाणं गिरवसेसमेव विणस्सदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । एदं च सुत्तमुप्पादाणच्छेदं दबट्टियणयणिबंधणमवलंबियण पयट्टमिदि दट्टव्वं, सुहुमसांपराइयचरिमसमये संतोदयेहिं विज्जमाणस्सेव मोहणीयस्स णिम्मलविणासोवएसादो। एवं च सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणमणुपालिय तत्थेव चरिम समये जहावुत्तेण विहिणा मोहणीयं पढमसुक्कज्झाणपरिणामेहिं णिम्मलविणासिय तदणंतरसमए खीणकसायगुणहाणं पडिवज्जदि त्ति परूवणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ--
* तदो से काले पढमसमयखीणकसायो जादो।
६ २८६ चरित्रमोहनीयपरिक्षयानन्तरसमये द्रव्यभावभेदभिन्नाशेषकषायवर्गोपरमात प्रतिलब्धक्षीणकषायव्यपदेशो यथाख्यातविहारशुद्विसंयममनुप्राप्तः प्रथमसमयनिर्ग्रन्थवीतराग-गुणस्थानमेष प्रतिपन्न इत्ययमत्र सूत्रार्थसंग्रहः । भवति चात्र क्षीणकषायगुणस्थानस्वरूपनिरूपणाय गाथा
६२८५ सूक्ष्मसाम्परायिकके कालके संख्यातवें भागके शेष रहनेपर गुणाश्रेणिशीर्षके साथ मोहनीर्यकर्म की अन्तिम फालिका नाशकर तदनन्तर क्रमसे अधःस्थितिकेद्वारा अपने कालके बराबर अवशेष रहीं गुणश्रेणिगोपुच्छाओंको प्रतिसमय अपवर्तमान सूक्ष्मसाम्परायिकस्वरूप अनुभागकृष्टियों के साथ गलानेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समय में मोहनीयकर्मके अनुभाग और प्रदेशोंके अविनाभावी क्षयको प्राप्त होनेवाला स्थितिसत्व.र्म पूरी तरहसे विनष्ट हो जाता है। इस प्रकार यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यहाँपर यह सूत्र उत्पादानुच्छेदद्रव्याथिकनयका अवलम्बन लेकर प्रवृत्त हुआ यह जानना चाहिये, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें सत्त्व और उदयरूपसे विद्यमान इस मोहनीयकर्मके निर्मूल विनाशका उपदेश पाया जाता है । इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानका पालन करके वहींपर अन्तिम समयमें यथोक्त विधिसे प्रथम शुक्लध्यानरूप परिणामोंकेद्वारा मोहनीयकर्मका निर्मूल विनाशकरके तदनन्तर समयमें क्षीणकषायगुणस्थानको प्राप्त होता है, इस बातका कथन करनेकेलिये आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* उसके बाद तदनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती क्षीणकषाय हो जाता है ।
६ २८६ चरित्रमोहनीयकर्मके क्षय होनेके अनन्तर समयमें द्रव्य और भावके भेदसे भिन्न जो सम्पूर्ण कषायवर्ग, उसके उपरम होनेसे जिसने क्षोणकषाय संज्ञाको प्राप्त किया है ऐसा यह जोव यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमको प्राप्तकर प्रथम समयमें निर्ग्रन्थ वीतरागगुणस्थानको प्राप्त हुआ। यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यहाँपर क्षीणकषाय गुणस्थानके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये एक गाथा पायी जाती है