Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २११]
१११ * कोहेण उवहिदो जम्हि मायं खवेदि लोभेण उवहिदो तम्हि किट्टीअो करेदि । ___ * कोहेण उवट्ठिदो जम्हि लोभं खवेदि, तम्हि चेव लोमेण उवट्टिदो लोभं खवेदि। __६२६५ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । णवरि एत्थ अस्सकण्ण करणमिदि वुत्ते जइ वि लोभसंजलणस्स एक्कस्स अस्सकण्णकरणायारेण अणुभागविण्णासो ण संभवदि तो वि अणुभागविसेसघादमपुवफद्दयविहाणं च पेक्खियण अस्सकण्णकरणद्धाए संभवो एत्थ ण विरुद्धदि त्ति घेत्तव्यं । किट्टीकरणद्धाए च लोभसंजलणस्सेव पुव्वापुव्वफद्दयाणि ओवट्टेयूण तिण्णि बादरसंगहकिट्टीओ णिवत्तेदि त्ति दट्ठव्वं, सेसकसायाणमेत्थ संभवाणुवलंभादो एसा सव्वा वि णाणत्तपरूवणा पुरिसवेदोदयं धुवं कादण कोहोदयक्खवगादो माण-माया-लोभोदयक्खवगाणं परूविदा त्ति जाणावगट्टमुवसंहारवकमाह
* एसा सव्वा सण्णिकासणा पुरिसवेदेण उवट्ठिदस्स ।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस समय मायासंज्वलनका क्षय करता है, लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस समय कृष्टियोंको करता है।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकवेगिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस समय लोभका क्षय करता है, लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उसी समय लोभसंज्वलनका क्षय करता है ।
२६५ ये सूत्र सुगम हैं । इतनी विशेषता है कि एक सूत्रमें अश्वकर्णकरण ऐसा कहनेपर यद्यपि एक लोभसंज्वलनका अश्वकर्णकरणरूपसे अनुभाग का विन्यास सम्भव नहीं है, तो भी अनुभागके विशेषघात और अपूर्वस्पर्धकविधानको देखकर अश्वकर्णकरणकी सम्भावना यहाँपर विरोधको प्राप्त नहीं होती, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। तथा कृष्टिकरण कालमें लोभसंज्वलनकी ही पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंका अपवर्तन करके तीन बादर संग्रहकृष्टियोंकी रचना करता है, ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि शेष कषायें यहाँपर सम्भव नहीं हैं। यह सभी विविधतारूप प्ररूपणा पुरुषवेदके उदय को ध्रव करके क्रोधसंज्वलनके उदयकी क्षपणाके साथ मान, माया और लोभसंज्वलनके उदययक्त क्षपकोंके कही गई है। इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेकेलिये उपसंहारवाक्यको कहते हैं
* यह सब सन्निकर्ष-प्ररूपणा पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी कही गई है।