Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २२३ ]
६ १७७ एदस्स सुत्तस्सत्थो-- 'बंधो व संकमो वा उदओ वा किं सगे सगे ट्ठाणे' एसा संकमणपट्ठवगस्स चउत्थी मूलगाहा । एदिग्से तिण्णि भासगाहाओ । ताओ कदमाओ त्ति वुत्ते 'बंधोदयेहिं णियमा' एसा पढमा भास गाहा, 'गुणसेढिअसंखेज्जा च पदेसग्गेण' एसा बिदियमासगाहा, 'गुणदो अणंतगुणहीणं वेदयदे' एमा तदियभामगाहा । एवमेदामि तिण्हं भामगाहाणं संकामगे जो अत्थो पुव्वं परूविदो सो चेव णिरवसेसो इमिस्से पंचमीए भासगाहाए अत्थो कागयो। जहा जत्थ अणभागं पदेसग्गं च समस्सियण बंधोदयसंकमाणमप्पाबहुअं भणिदं, तहा चेव एत्थ वि णिरवयवं वत्तव्यमिदि वृत्तं होइ । तदो पंचमीए मासगाहाए अत्थ वेहासा समत्ता ।
६ ११७ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-'बंधो व संकमो वा उदओ वा किं सगे सगे टाणे । (९४-१४७) या संक्रमण प्रस्थापकको चौथी मलगाथा है। इसको तोन भाष्यगाथाएँ हैं। वे कौन हैं ? ऐसा कहने पर 'बंधोदयेहिं णियमा ( ९५-१४८ ) या प्रथम भाष्यगाथा है; 'गणसेढि असंखेज्जा च पदेसग्गेण' यह दूसरी भाष्यगाथा है तथा 'गुणदो अणंतगुणहीणं वे दयदे' यह तीसरी भाष्यगाथा है। इस प्रकार इन तीनों भाष्यगाथाओंका सक्रमकास्थापकके विषयमं जो अथं पहले प्ररूपितकर आये हैं वही पूरा इस पांचवीं भाष्यगाथाका अर्थ करना चाहिये । तथा जिस प्रकार अनुभाग और प्रदेशपुंजका आश्रय करके बन्ध, उदय और संक्रमका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार यहाँ पर भी भेदके बिना कहना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। तत्पश्चात् पाँचवीं भाष्यगाथाको अर्थसम्बन्धी विभाषा समाप्त हुई।
विशेषार्थ-संक्रामक प्रस्थापकके बन्ध, संक्रम और उदय अपने-अपने स्थानमें अनन्तरअनन्तर कालको अपेक्षा क्या अधिक हैं, होन हैं या समान हैं ? यह मूल गाथा ( ९४.१४७ ) में जाननेकी पृच्छा की गई है। आगे इन तीन भाष्यगाथाओं द्वारा उक्त पृच्छाका समाधान किया गया है। इसका समाधान करते हुए प्रथम भाष्यगाथा ( ९५-१४८ ) में बतलाया है कि संक्रामकप्रस्थापकके प्रथम समय में जो अनुभागबन्ध होता है तदनन्तर समयमें वह अनन्तगुणाहीन होता है। इसी प्रकार प्रतिसमय जानना चाहिये । उदयके विषयमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । संक्रमके विषयमें यह व्यवस्था है कि जितने कालमें एक अनुभागकाण्डकका उत्कीरण करता है तब-तक वह उतने उतने ही अनुभागका संक्रम करता है। उसके बाद अन्य अनुभागकाण्डकका प्रारम्भ करने पर उसके काल तक उसे भी प्रतिसमय समानरूपसे अनन्तगुणेहोन-अनन्तगुणेहीन अनुभागका संक्रम करता है। आगे दूसरी भाष्यगाथा ( ९६-१४९ ) में बतलाया है कि प्रथम समयमें जितना प्रदेश उदय होता है, उससे दूसरे समय में असंख्यातगुणे प्रदेशोंका उदय होता है। इसीप्रकार आगे-आगे के समयोंमें जानना चाहिये । प्रदेश-उदयके समान संक्रमकी भी प्ररूपणा जाननी चाहिये । प्रदेश बन्धक विषयमें यह नियम है कि वह चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थानरूपसे भजनीय. है। तीसरी भाष्यगाथा ( ९७-१५० ) में जो बात कहो गई है वह प्रथम भाष्यगाथामें ही प्ररूपित की जा चुकी है. इसलिये उस सम्बन्धमें कोई विशेष व्याख्यान नहीं है। संक्रामकप्रस्थापककी अपेक्षा यह जितना भो कथन है वह सब कृष्टियोंको क्षपणामें प्रवृत्त हुए जोवके भो जानना चाहिये, यह इस पांची भाष्यगाथाका समुच्चयरूप अर्थ है ।
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