Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २३१ ]
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आवलियाओ होंति त्ति वक्खाणेयव्वं । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्टमुवरिमं विद्या
सागंथ माढवे ' --
* विहासा ।
$ २३२ सुगमं ।
* तं जहा ।
९ २३३ सुगमं ।
* णं किहिं संकममाणस्स पुव्ववेदिदाए समयूणा उदयावलिया वेदिज्जमाणिगाए किट्टीए पडिवण्णा उदयावलिया एवं किट्टी वेदगस्स उक्कस्सेण दो आवलिया
।
६ २३४ किट्टीदो किट्टीअंतरं संकममाणस्स तम्मि अवत्थंतरे उदयावलियन्भंतरे दो संगकिट्टीणं पढमट्ठिदी अस्थि त्ति भणिदं होदि । ताओ पुण दो वि आवलियाओ किट्टीदो किट्टिसंकममाणस्स समयूणावलियमेत्तकालं संभवति । पुणो सेसकालम्ह सम्हि चेव एका उदयावलिया भवदि, उच्छ्ट्ठिावलियाए गालिदाए तत्थ पयारंतरस्स संभवावभादोत्ति जाणावणट्टमुत्तरसुत्तमाह-
ये दो आवलियाँ होती हैं ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगे के विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस गाथाकी विभाषा की जाती है ।
६ २३२ यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे ।
९ २३३ यह सूत्र सुगम है ।
* एक संग्रह कृष्टि के बाद दूसरी संग्रह कृष्टिका संक्रमण करनेवाले क्षपकके पूर्व में वेदी गई संग्रह कृष्टिकी एक समय कम उदयावलि और वर्तमान में वेदी जानेवाली संग्रह कृष्टिकी पूरी उदयावलि । इस प्रकार कृष्टि वेदककी उत्कृष्टसे दो आवलियाँ एक साथ पायी जाती हैं ।
९ २३४ एक संग्रहकृष्टि से दुसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करनेवाले क्षपकके उस दूसरी अवस्था में उदयावलिके भीतर दो संग्रह कृष्टियों की प्रथम स्थिति होती है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु वे दोनों ही आवलियाँ एक संग्रह कृष्टिसे दूसरी संग्रह कृष्टि में संक्रमण करनेवाले जोवके एक समय कम एक आवलि कालतक सम्भव हैं, पुनः शेषकालमें सर्वत्र ही (वेदी जानेवाली संग्रह कृष्टिके वेदन कालतक ) एक उदयावलि होती है, क्योंकि उच्छिष्टावलिके गल जाने पर वहाँ दूसरा प्रकार सम्भव नहीं उपलब्ध होता। इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगे सूत्रको कहते हैं
१. विहासागंथमाह आ० ।
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