Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
$ २३९ सुगमं ।
* तं जहा ।
$ २४० सुगमं ।
* अंतरे अकदे णत्थि णाणत्तं ।
$ २४१ एत्थ णाणत्तमिदि वुते मेदो विसेसो पृधभावों ति एयट्ठो । तदो अंतरकरणादो पुत्रवत्था वट्टमाणाणं कोह- माणोदयक्खवगाणं ण कोत्थि मेदसंभवो ति gists |
* अंतरे कदे णाणत्तं ।
$ २४२ अंतरकरणे पुण समाणिदे तत्तो पहुडि केत्तिओ वि णाणत्तसंभवो अस्थि तमिदाणिं भणिस्सा मोति वृत्तं होदि । संपहि को सो विसेससंभवो त्ति आसंकाए
इदमाह
* अंतरे कदे कोहस्स पढमट्टिदी णत्थि, माणस्स अस्थि ।
१ २४३ पुब्विल्लक्खवगो पुरिसवेदेण सह कोहसंजलणस्स पढमट्ठिदिमंतो मुहुत्तायामेण ठवेदि । एसो वुण पुरिसवेदेण सह माणसंजलणस्स पढमट्टिदि ठवेदि त्ति एद
$ २३९ यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे ।
$ २४० यह सूत्र सुगम है |
* अन्तरकरणद्वारा अन्तर नहीं करने तक कोई विभिन्नता नहीं है ।
$ २४१ इस सूत्रमें 'णाणत्त" ऐसा कहनेवर भेद, विशेष और पृथग्भाव ये तीनों एकार्थक हैं । अतएव अन्तरकरणसे पूर्व अवस्था में विद्यमान क्षपक जीवोंके क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलनके क्षपणा के समय कोई भेद सम्भव नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* अन्तरक्रिया के सम्पन्न करने पर विभिन्नता है ।
$ २४२ परन्तु अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न होने पर वहाँसे लेकर कितनी ही विभिन्नता सम्भव है उसे इस समय कहेंगे, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब वह कौन सा विशेष सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्र को कहते हैं
* अन्तरक्रिया के सम्पन्न करनेके बाद क्रोधसंज्वलन की प्रथम स्थिति नहीं होती, मानसंज्वलनकी प्रथम स्थिति होती है ।
§ २४३ पहलेके क्षपक जीव अर्थात् क्रोधसंज्वलनके उदयके साथ क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक जीव पुरुषवेदके साथ क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थितिको अन्तर्मुहूर्त आयाम रूपसे