Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गा० २३०] दुसमयूणा श्रावलियपविट्ठा च अस्सिं समए वेदिज्जमाणिगाए संगहकिट्टीए पत्रोगसा संकमंति ।
$ २२८ गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि पओगसा संकमंति ति एवं भणिदे उच्छिहावलियपविट्ठपदेससंतकम्म थिवुक्कसंकमेण उदये पविसदि, सेससंतकम्म पि अधापवत्तसंकमेण संकामिज्जदि त्ति एसो पओगो णाम । एदेण पओगेण किट्टीसेसस्स किट्टीअंतरसंकंती होदि त्ति भणिदं होइ । एवमेसो पढमभासगाहाए अत्थो विहासिदो त्ति जाणावणडमुवसंहारवक्कमाह--
* एसो पढमभासगाहाए अत्थो ।
२२९ एवमेदमुवसंहरिय संपहि बिदियभासगाहाए अत्थविहासणट्ठमुवरिमं पबंधमाह--
* एतो विदियभासगाहाए समुकित्तणा। ६ २३० सुगमं ।
दो आवलिबद्ध नवक समयप्रबद्ध हैं वे इस समय वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टिमें प्रयोगसे संक्रमित होते हैं।
६ २२८ यह सूत्र गतार्थ है । इतनी विशेषता है कि 'प्रयोगसे संक्रमित होते हैं ऐसा कहनेपर उच्छिष्टावलिप्रविष्ट प्रदेशसत्कर्म स्तिवुकसंक्रमसे उदयमें प्रविष्ट होते है तथा शेषसत्कर्मको भी अधःप्रवत्त संक्रमकेद्वारा संक्रमित करता है। इस प्रकार यह यहाँ प्रयोग शब्दका अर्थ है। इस प्रयोगसे संग्रह कृष्टि शेषकी कृष्टि अन्तरमें संक्रान्ति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार यह प्रथम भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा की । इस प्रकार इस बातका ज्ञान करने के लिए उपसंहार वाक्यको कहते हैं
* यह प्रथम माष्यगाथाका अर्थ है।
६ २२९ इस प्रकार इस भाष्यगाथाका उपसंहार करके अब दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं। ६ २३० यह सूत्र सुगम है।