Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २२९-२३० ] भणिदे पुत्ववेदिदसंगहकिट्टीए केत्तियमेत्तावसेसे संते अण्णकिट्टीए संकमो होइ त्ति गाहापच्छद्ध सुत्तत्थसंबंधो। एसा वुण पुच्छा दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबद्धाणमुच्छिट्ठावलियाए च सेसभावमुवेक्खदे । एवमेसा मूलगाहा किट्टादो किट्टीअंतरं संकममाणस्स तम्मि संधिविसेसे दुसमयणदोआवलियमेत्ते कालम्मि बद्धणवकबधसमयपबद्धाणमुच्छिट्ठावलियाए च खवणाविहिं पदुप्पाएदि त्ति सिद्धं ।
$ २२४ संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थविसेसं दाहि भासगाहाहिं विहासेमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ
के एदिस्से बे भासगाहाम्रो । ६ २२५ सुगमं । तत्थ ताव पढमभासगाहाए समुक्तित्तणं कुणमाणो इदमाह* (१७७) किट्टीदो किटिं पुण संकमदे णियमसा पोगेण ।
किट्टीए सेसगं पुण दो श्रावलियाएं' जं बद्धं !।२३०॥
वलिको अपेक्षा करती है। इस प्रकार यह मूलगाथा एक संग्रहकृष्टिसे दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रम करनेवाले क्षपक जोव उस सन्धि विशेष में दो समय कम दो आवलिप्रमाणकालके भीतर उस कालमें बन्धको प्राप्त हुए नवकबन्ध समय प्रबद्धोंकी तथा उच्छिष्टावलिप्रमाण समयप्रबद्धोंकी क्षपणा करनेको विधिका प्रतिपादन करती है, यह सिद्ध हुआ ।
विशेषाथे--इस मूलगाथामें यह पच्छाकी गई है कि अगली संग्रह कृष्टिका वेदन करते समय पिछली संग्रह कृष्टिका जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध सत्तामें शेष रहता है तथा उसके साथ ही जो उच्छिष्टावलिप्रमाण समयप्रबद्ध शेष रहता है उसका क्या उदयद्वारा वेदन होता है या वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टि में संक्रमण होकर उसका वेदन होता है।
$ २२४ अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थविशेषकी दो भाष्यगाथाओंद्वारा विभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* इस चौथी मलगाथाकी दो भाष्यगाथाएँ हैं ।
६ २२५ यह सूत्र सुगम है। उसमें सर्वप्रथम प्रथमभाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हुए इस प्रथम भाष्यगाथाको कहते हैं
* (१७७) पिछलो संग्रहकृष्टिके वेदन करने के बाद जो भाग शेष बचता है उसे अन्य संग्रहकृष्टिमें नियमसे प्रयोगद्वारा संक्रमण करता है। परन्तु पिछली संग्रह कृष्टिका दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवक-बन्धरूप जो द्रव्य है तथा उच्छिष्टावलि प्रमाण जो द्रव्य है वह शेषका प्रमाण है ।।२३०।।
१. आवलियासु ता० ।