Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २२७]
* एत्तो णवमी भासगाहा । ६ २१० सुगमं । * (१७४) जे चावि य अणुभागा उदीरिदा णियमसा पोगेण ।
ते यप्पा अणुभागा पुव्वपविट्ठा परिणमंति ॥ २२७॥ ६२११ जाओ खलु अणुभागकिट्टीओ परिणामविसेसेण उदीरिज्जंति ताओ समस्सियूण जाओ ट्ठिदिक्खएण उदयं पविसंति पुव्वमुदयावलियम्भंतरं पविट्ठाणुभागकिट्टीओ ताओ वि तदायारेण परिणमंति, तत्थत्तणहेट्ठिमोवरिमासंखेज्जमागविसयाओ अणंताओ किट्टीओ उदीरिज्जमाणमज्झिमकिट्टीसरूवेण परिणमिय विपच्चंति त्ति भणिदं होदि । ण च अण्णसरूवेणावहिदाणं पोग्गलक्खंधाणमण्णसरूवेण विपरिणामो विरुद्धो, बझंतरंगकारणविसेसमासेज्ज कम्मपोग्गलाणं विचित्तसत्तसरूवेण परिणमणसिद्धीए पडिसेहाभावादो । संपहि दस्सेव सुत्तत्थस्स फुडीकरण मुवरिमो विहासागंथो ।
* विहासा। ६ २१२ सुगमं । * जाओ किट्टीओ उदिण्णाओ ताओ पडुच्च अणुदीरिजमाणिगाओ
* इससे आगे नौवीं माष्यगाथा है । ६ २१० यह सूत्र सुगम है।
* [१७४] जितनी भी अनुमागकष्टियाँ नियमसे प्रयोगवश उदीरित होती हैं उनरूप होकर पहले उदयावलिमें प्रविष्ट हुई अनुभागकृष्टियाँ परिणमती हैं ॥२२७॥
६२११ जो नियमसे अनुभागकृष्टियां परिणामविशेषके कारण उदोरित होती हैं उन्हें मिलाकर जो अनुभागकृष्टियाँ स्थितिक्षयसे उदयमें प्रवेश करतो हैं अर्थात् पहले उदयावलिमें प्रविष्ट हुई जो अनुभागकृष्टियाँ हैं वे भी उसरूपसे परिणमतो हैं, क्योंकि अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्तकृष्टियाँ उदोर्ण होनेवाली मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमकर फलित होती हैं; यह उक्त कथन का तात्पर्य है। और अन्यरूपसे अवस्थित पुद्गलस्कन्धोंका अन्यरूपसे विपरिणमना विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि बाह्य और अन्तरंग कारणविशेषका आश्रय करके कर्मपुद्गलोंका विचित्र सत्तारूपसे परिणमनरूप सिद्धिका प्रतिषेध नहीं है । अब इसी सूत्रके अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगे का विभाषाग्रन्थ आया है
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६ २१२ यह सूत्र सुगम है। * जो कृष्टियाँ उदीर्ण हुई हैं उनकी अपेक्षा अनुदीर्यमाण भी कृष्टियाँ हैं १ ते पच्छा मू।