Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणागच्छंति त्ति वृत्तं होइ । ण च एवंविहो परिणामो तासिमसिद्धो; परमागमोवएसबलेण सिद्धत्तादो । एवमेसा गाहा उदयावलियपविट्ठाणुभागं पहाणं कादूर्ण तत्थत्तणकिट्टीणमुदयं पविसमाणावत्थाए उदीरिज्जमाणमज्झिमकिट्टीसरूवेण परिणमणविहाणं पदुप्पाएदि ति पुबिल्लदोगाहाहिंतो एदिस्से गाहाए कधंचि अपुणरुत्तभावो वक्खाणेयव्वो। संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थं फुडीकरेमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेह
* विहासा। $ २१६ सुगमं। * पच्छिम आवलिया त्ति का सरणा । ६२१७ सुगमं । * जा उदयावलिया सा पच्छिमावलिया। $ २१८ कुदो ? सव्वपच्छिमाए तिस्से तव्ववएसोववत्तीए णिव्वाहमुवलंभादो।
* तदो तिस्से उदयावलियाए उदयसमयं मोत्तण सेसेसु समएसु जा संगहकिट्टी वेदिज्जमाणिगा, तिस्से अंतरकिट्टीओ सव्वाश्री ताव धरिज्जंति जाव ण उदयं पविठ्ठामो त्ति ।
स्वरूपको छोड़कर असंख्यात बहुभागप्रमाण मध्यकी जो कृष्टियाँ हैं उस रूपसे परिणमकर फल देकर निकल जाती हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और उनका इस प्रकारका परिणमन करना असिद्धः नहीं है, क्योंकि परमागमके उपदेशके बलसे यह बात सिद्ध है। इस प्रकार यह गाथा उदयावलिमें प्रविष्ट हुए अनुभागको प्रधान करके उसमें रहनेवाली कृष्टियोंके, उदयमें प्रवेश करनेकी अवस्थामें, उदीर्यमाण मध्यम कृष्टियोंरूपसे परिणमन करनेकी विधिका प्रतिपादन करती है । इस प्रकार पहलेको दो गाथाओंसे इस गाथामें कथंचित् अपुनरुक्तपना है, इस बातका व्याख्यान करना चाहिये । अब इस प्रकार इस गाथाके अर्थको स्पष्ट करते हुए आगेके विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस भाप्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६२१२ यह सूत्र सुगम है। * पश्चिम आवलि यह किसकी संज्ञा है ? ६२१७ यह सूत्र सुगम है। * जो उदयावलि है उसे ही पश्चिमावलि कहते हैं।
६२१८ क्योंकि वह सबसे अन्तिम है, इसलिये उसको उस प्रकारसे उपपत्ति निर्वाधरूपसे बन जाती है।
* इसलिये उस उदयावलिके उदय समयको छोड़कर शेष रहे समयोंमें जो संग्रहकृष्टि वेदी जा रही है उसकी सभी अन्तरकृष्टियाँ तब तक उसी रूप रहती हैं जब तक वे उदयमें प्रवेश नहीं करती हैं ।