Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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मा० २२२-२२३]
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$ १७१ एवमेदिस्से चउत्थभासगाहाए अत्यविहा सण मुवसंहरिय संपहि जहावसरपत्ता पंचमीए भासगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो तदवसरकरणङ्कमिदमाह -- * एतो पंचमी भासगाहा ।
$ १७२ सुगमं ।
* (१७०) बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदे अभागे । बहुगं ते थोवं जे जहेव पुत्वं तहेवेहिं ॥२२३॥
$ १७३ एसा पंचमी भासगाहा किट्टीवेदगस्स खवगस्स पदेसाणुभागविसयबंधोदयसंकमाणं समयं पडि पवृत्तिविसेसस्स सत्याणप्पा बहुअ विहिणा परूवणडुमोइण्णा । तत्कथमिति चेत् १ इदमेव विवृण्महे -- 'बंधो व संकमो वा' एवं भणिदे बंधसंकमोदया पदेसाणुभागविसया समयं पडि कथं पयट्टंति, किं ताव पदेसविसये असंखेज्जगुणवड्डी-हाणिसरूवेण अण्णा वा पयट्टंति, अणुभागविसये वि किमणंतगुणaritra aorat aा त्ति गाहापुञ्वद्ध सुत्तत्थ संबंधो । संपहि एवं पुच्छिदत्थविसये णिच्छयजणणङ्कं गाहापच्छद्धो समोइण्णो 'बहुअं ते थोवं ते' इच्चादि । बहुत्वे वा
$ १७१ इस प्रकार इस चौथो भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषाका उपसंहार करके अब यथावसर प्राप्त पांचवीं भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा करते हुए उसका अवसर [प्रारम्भ ] करनेके लिये इस सूत्र को प्रारम्भ करते हैं
* इससे आगे पाँचवीं भाष्यगाथा आई है ।
$ १७२ यह सूत्र सुगम है ।
* (१७०) कृष्टिवेदक के प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, संक्रम और उदय इनका बहुत्व या स्तोकत्व जिसप्रकार पहले अर्थात् संक्रामक प्रस्थापकके कहा है उसी प्रकार इस समय कहना चाहिये ।। २२३ ।।
$ १७३ यह पाँचवीं भाष्यगाथा कृष्टिवेदक क्षपकके प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, उदय और संक्रमसम्बन्धी प्रवृत्तिविशेषको प्रतिसमय स्वस्थान अल्पबहुत्वविधिसे प्ररूपणा करने के लिये आई है।
शंका- वह कैसे ?
समाधान – आगे इसका विवरण प्रस्तुत करते हैं - 'बंधी व संकमो वा' ऐसा कहने पर प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, संक्रम और उदय प्रतिसमय किस प्रकार प्रवृत्त होते हैं, क्या प्रदेशोंके विषयमें असंख्यात गुणवृद्धिरूपसे प्रवृत्त होते हैं या असंख्यात गुणहानिरूपसे प्रवृत्त होते हैं या अन्यथा प्रवृत्त होते हैं ? अनुभागके विषय में भी क्या अनन्तगुणहानिरूपसे प्रवृत्त होते हैं या अनन्तगुणवृद्धिरूप से प्रवृत्त होते हैं या अन्यथा प्रवृत्त होते हैं । इस प्रकार गाथा के पूर्वार्ध में सूत्रका
१. तहेवेहि आ० ।