Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २१४-२१५ ]
९७ एसा पढममूलगाहा बारमसगहकिट्टीओ खवेमाणी कधं खवेदि, किं वेदयमाणो खवेदि, किं वा अवेदयमाणो सछुहंतो चेव खवेदि, आहो तदुभयेण खवेदि, किं वा परिवाडीए खवेदि, आहो अपरिवाडीए खवेदि त्ति एवंविहाणं पुच्छाणं णिण्णयविहाणट्ठमोइण्णा। सुगमो च एदिस्से गाहाए अवयवत्थपरामरसो पदसंबंधो च । संपहि एदीए गाहाए पुच्छामेत्तेण णिहिट्ठाणमेदेसिमत्थाणं णिणये कीरमाणे तत्थ इमा एक्का भासगाहा दट्टव्वा त्ति जाणावणहमिदमाह
* एदिस्से एक्का भासगाहा । ६ ९८ सुगमं । * तं जहा। $ ९९ सुगमं । * (१६२) पदमं विदियं तदियं वेदेंतो वावि संछुहंतो वा ।
चरिमं वेदयमाणो खवेदि उभयेण सेसानो ॥२१५।।
६९७ यह प्रथम मूल गाथा बारह संग्रहकृष्टियों की क्षपणा करता हुआ किस प्रकार क्षपणा करता है, क्या वेदन करना हुआ क्षपणा करता है, या क्या वेदन न करके संक्रमण करता हुआ हो क्षपणा करता है, या वेदन करता हुआ और क्षपणा करता हुआ इन दोनों प्रकारों से क्षपणा करता है, या परिपाटीक्रम से क्षपणा करता है या परिपाटीक्रम को छोड़कर क्षपणा करता है इस प्रकार इस विधि से पूछी गई पृच्छाओं के निर्णय का विधान करने के लिए अवतरित हुई है। परन्तु इस मूल गाथा के अवयवों के अर्थ का स्पष्टीकरण और पदों का सम्बन्ध सुगम है । अब इस मूलगाथा के पृच्छामात्र से निर्दिष्ट किये गये इन अर्थों का निर्णय करने पर उस विषय में एक भाष्यगाथा जाननी चाहिए इस प्रकार इस बात का ज्ञान कराने के लिए यह सूत्र कहते हैं
* इस मूलगाथाकी एक भाष्यगाथा है । ६ ९८ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे । ६९९ यह सूत्र सुगम है।
* १६२ क्रोध संज्वलनकी प्रथम, द्वितीय और तृतीय सग्रहकृष्टि को वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ भी क्षय करता है । अन्तिम बारहवीं संग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ ही क्षय करता है तथा शेष सब संग्रह-कृष्टियोंको दोनों प्रकार से क्षय करता है ।। २१५ ।।