Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २१३]
९३ सुगमं । एवं च एक्कारसमी मूलगाहाए विहासिय समत्ताए तदो किट्टीसु पडिबद्धाणमेक्कारसण्हं मूलगाहाणमत्थविहासा समत्ता होदि ति जाणावण?मुवसंहारवक्कमाह--
* 'एक्कारस होति किट्टीए' त्ति पदं समत्तं ।
६९३ यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार ग्यारहवीं मूल गाथाको विभाषा करके, समाप्त होनेपर उसके बाद कृष्टियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली ग्यारह मूल गाथाओंके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये उपसंहार वचनको कहते हैं--
* 'एक्कारस होति किट्टीर' अर्थात् कृष्टियोंके विषयमें ग्यारह मूल गाथायें हैं यह पद समाप्त होता है ।
विशेषार्थ--प्रकृतमें विभाषासहित ग्यारहवीं मूल गाथाको विभाषाके साथ टीका द्वारा स्पष्ट किया गया है। इसमें आये हुए 'वीचार' पदका अर्थ क्रियाभेद है। वे वीचारस्थान या क्रियाभेद सब मिलाकर दस कहे गये हैं। उनके नाम हैं--स्थितिघात १, स्थितिसत्कर्म २, उदय ३, उदीरणा ४, स्थितिकाण्डक ५. अनुभागघात ६, स्थितिसत्कर्म ७. अनभागसत्कर्म ८.बन्ध ९. और बन्धपरिहानि। इन दस वोचारोंमें से 'स्थितिघात' पद द्वारा स्थितिघात-विषयककालका ग्रहण किया गया है । 'स्थितिसत्कर्म द्वारा इस कृष्टिवेदक क्षपकके स्थितिविषयक सत्कर्मके प्रमाणका ज्ञान कराया गया है । 'उदय' पद द्वारा उक्त जीवके उदयमें प्रतिसमय संज्वलन मोहनीयको कृष्टियोंमें अनन्तगुणी हानि होती रहती है यह स्पष्ट किया गया है। 'उदीरणा' पद द्वारा बुद्धिपूर्वक उपयोगके स्वभावभूत आत्माके सन्मुख रहने पर अपकर्षण होकर संज्वलन मोहनीयकी स्थिति और अनुभागकी जो उदोरणा होती है उसकी प्ररूपणा की गई है। 'स्थितिकाण्डक' पद द्वारा उक्त क्षपकजीवके स्थितिकाण्डकके आयामका निर्देश किया गया है। पहले जो स्थितिघात कह आये हैं उसमें कितना काल लगता है इसका विचार किया गया है और स्थितिकाण्डकमें उसके आयामका विचार किया गया है, इसलिये इन दोनोंके कथनमें अन्तर है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । 'अनुभागघात' इस पद द्वारा उक्त जीवके संज्वलन चतुष्कके अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना होती रहती है यह स्पष्ट किया गया है, क्योंकि इस जीवके संज्वलन चतुष्कका अनुभाग कृष्टिगत हो जाता है, इसलिये इसके अनुभागका काण्डकघात होना यहाँ सम्भव नहीं है। 'स्थितिसत्कर्म' इस पद द्वारा कृष्टिवेदकके चारों संज्वलनोंकी बारह संग्रहकृष्टियों-सम्बन्धी जो ग्यारह सन्धियाँ होती हैं उन सन्धियोंमें घात होनेसे जो स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उनके प्रमाणका निश्चय कराया गया है। किन्तु यह दूसरे क्रियाभेद स्थितिसत्कर्मसे अत्यन्त भिन्न है, क्योंकि वह कृष्टिवेदकके प्रथम सेमयमें जो स्थितिकर्म होता है उसके प्रमाणका निश्चय कराता है और यह स्थितिसत्कर्म सब सन्धियोंमें शेष रही स्थितिसत्कर्मके प्रमाण का निश्चय कराता है, इसलिए इन दोनोंमें अन्तर है । यदि कहा जाए कि स्थितिसत्कर्म पदसे दोनोंका ग्रहण हो जायगा, इसलिये इनका अलग-अलग निर्देश करनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती। इस प्रकार इसी बात को ध्यान में रखकर 'ट्ठिदिसंकमेण' पद द्वारा स्थितिसंक्रमरूप इस दूसरे अभिप्राय का निर्देश किया गया है। इसे स्वीकार कर लेने से उक्त विरोध को स्थिति समाप्त हो जाती है । 'अनुभागसत्कर्म' इस पद द्वारा कृष्टिवेदक के प्रथम समय में चारों संज्वलनों का जो अनुभागसत्कर्म होता है वह सूचित किया गया है। 'बन्ध' इस पद द्वारा कृष्टिवेदक