Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २१९-२२० ]
६१४१ एवमेत्तिएण सुत्तपबंधेणे पढमभासगाहामस्सियूण द्विदि-अणुभागसंकमोदीरणाणं मूलगाहासुत्तणिहिट्ठाणं पवुत्तिविसेसणिण्णयं कादूण संपहि बिदिय भासगाहाए विहासणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह
* एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्तित्तणा । ६ १४२ सुगमं । * जहा। $ १४३ सुगमं । * (१६७) संकामेदि उदीरेदि चावि सव्वेहिं द्विदिविसेसेहिं ।
किट्टीए अणुभागे वेदेंतो मज्झिमो णियमो ॥ २२० ॥ ६१४४ एसा बिदियभासगाहा पढमभासगाहाणिहिट्ठस्सेव अत्थविसेसस्स पुणो वि विसेसियूण परूवणट्ठमोइण्णा । तत्थ णिहिट्ठाणं द्विदिसंकम-द्विदिउदीरणाणमणभागोदयस्स च किंचि विसेसियूणेत्थ णिद्दे सदसणादो । ण च एवं संते एदिस्से गाहाए पुणरुत्तभावो आसंकणिज्जो, तत्थापरूविदहिदि-अणुभागोदीरणाणमेत्थ पहाणभावेण
६१४१ इस प्रकार इतने सूत्रप्रबन्धद्वारा प्रथम भाष्यगाथाका आश्रयकर मूल सूत्रगाथामें निर्दिष्ट स्थिति और अनुभागसम्बन्धी संक्रम और उदीरणाको प्रवृत्तिविशेषका निर्णय करके अब दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* इससे आगे अब दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । ६ १४२ यह सूत्र सुगम है । * जैसे। ६ १४३ यह सूत्र सुगम है।
* (१६७) यह क्षपक सर्वस्थितिविशेषोंके द्वारा क्या संक्रम और उदीरणा करता है ? कृष्टिके अनुभागोंका वेदन करता हुआ नियमसे मध्यम कृष्टियोंके अनुभागोंका वेदन करता है ।। २२० ॥
8 १४४ यह दूसरी भाष्यगाथा, प्रथम भाष्यगाथाद्वारा निर्दिष्ट किये गये अर्थविशेषकी ही फिर भी विशेषरूपसे प्ररूपणा करनेके लिये अवतीर्ण हुई है क्योंकि उसमें कहे गये स्थितिसंक्रम, स्थिति-उदीरणा और अनुभागके उदयका किञ्चित् विशेष करके इस भाष्यगाथामें निर्देश देखा जाता है। और ऐसा होने पर इस भाष्यगाथामें पुनरुक्तपनेका दोष आता है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि पूर्वकी भाष्यगाथामें नहीं कहे गये स्थिति-अनुभाग और उदीरणाका इस भाष्य
१. आ० प्रतौ 'एवमेत्तिएण पबंधेण' इति पाठः ।