Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २२१]
* विहासा ।
$ १५५ सुगमं ।
* एसा विगाहा पच्छासुत्त ।
$ १५६ सुगमं । संपहि किमेसा गाहा पुच्छदित्ति आसंकाए इदमाह-
* अकड्डदि जे अंसे से काले किएणु ते पवेसेदि आहो ण ? वक्तव्वं
काम्यन्वोत्ति कुत्तं होइ । संपहि एवं
$ १५७ गाहापुब्बद्ध पुच्छा हिसंबंधो एवं पुच्छि दत्थविसये णिष्यविहाणडुमिदमाह -
६५
* पवेसेदि ओकडिदे च पुष्यमणंतर पुव्वगेण ।
$ १५८ अनंतरपुब्बिन्लसमयम्मि भोकडिदे कम्मपदेसे से काले चैव प्रवेसेदुमत्थि संभवो, ण तत्थ पडिसेहो ति बुत्तं होइ । एदेण उकड्डिदस्से प्रदेसग्गस्स नहा भावलियमेतकालं णिरुत्रक्कमभावेणावद्वाणणियमो, ण एवमोकडिदस्स पदेसग्गस्स, किंतु ओडिदबिदिय समये चेव पुणो ओकड्डियूण पवेसेदुमेदस्स संभवो अस्थि ति नाणात्रिद्धं ।
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषाकी जाती है ।
१५५ यह सूत्र सुगम है ।
* यह भाष्यगाथा भी
पृच्छासूत्र
है ।
$ १५६ यह सूत्र सुगम है। अब इस गाथामें क्या पूछा गया है ऐसी आशंका होनेपर यह आगेका सूत्र कहते हैं
* जिन कर्म परमाणओंको अपकर्षित करता है अनन्तर समयमें उन्हें क्या प्रविष्ट करता है या नहीं प्रविष्ट करता है ? कहते हैं
$ १५७ भाष्यगाथाके पूर्वार्धमें पृच्छाका सम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिये, यह उक्त कथनतात्पर्य है । अब इस प्रकार पूछे गये अर्थके विषयमें निर्णयका विधान करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* पूर्व समय में अपकर्षित करनेपर उससे अनन्तर समयमें प्रवेश कराना शक्य
है ।
$ १५८ अनन्तर पूर्व समय में अपकर्षित किये गये कर्मप्रदेशोंका तदनन्तर समयमें हो प्रवेश कराना सम्भव है, इस विषय में प्रतिषेध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे ज्ञात होता है कि उत्कर्षित किये गये प्रदेशपुंजका जिस प्रकार एक आवलिकाल तक निरुवक्रमरूपसे रहनेका नियम है उस प्रकार अपकर्षित किये गये प्रदेशपुंजका यह नियम नहीं है । किन्तु अपकर्षित करनेके
१. ओड्डिदस्स आ० प्रति ।