Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा परूवणोवलंभादो। संपहि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा
$१४५ 'संकामेदि उदीरेदि चावि' एवं मणिदे किं सव्वेहि द्विदिविसेसेहि संकामेदि, उदीरेदि वा, आहो ण सम्वेहिं ति गाहापुव्वद्धे पुच्छाहिसंबंधो; गाहापुव्वद्धस्सेदस्स पुच्छासुत्तभावेण समवट्ठाणदंसणादो । तदो किं सव्वे द्विदिविसेसे संकामेदि उदीरेदि वा, आहो ण, तहा वत्तव्वमिदि । एवंविहो पुच्छाणिद्द सो गाहापुव्वद्धपडिबद्धो त्ति णिच्छेयव्वं । गाहापच्छद्धे 'किट्टीए अणुभागे वेदेंतो णियमा' मझिमकिट्टीसरूवेण चेव वेदेदि ति सुत्तत्थसंबंधों । एदं च गाहापच्छद्धं गिद्दे ससुत्तमेव, ण पुच्छासुत्तमिदि पुव्वं व वक्खाणेयव्वं । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थविसेसं विहासेमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ--
* विहासा। ६ १४६ सुगमं । * एसा विगाहा पुच्छासुत्तं । ६ १४७ सुगमं ।
गाथामें प्रधानरूपसे कथन पाया जाता है। अब इस भाष्यगाथाके अवयवोंके किंचित् अर्थकी प्ररूपणा करेंगे । वह जैसे
$ १४५ 'संकामेदि उदीरेदि चावि' ऐसा कहनेपर क्या सभो स्थितिविशेषोंके द्वारा संक्रम करता है या उदोरणा करता है अथवा सभी स्थितिविशेषोंद्वारा संक्रम और उदीरणा नहीं करता ? इस प्रकार इस भाष्यगाथाके पूर्वाधमें पृच्छाका सम्बन्ध है क्योंकि इस गाथाके पूर्वार्धका पृच्छासूत्ररूपसे अवस्थान देखा जाता है। इस कारण क्या सभी स्थितिविशेषोंको संक्रमित करता है और उदीरित करता है अथवा नहीं करता है, इस प्रकार कहना चाहिये । इस प्रकार पृच्छाका निर्देश गाथाके पूर्वार्धमें प्रतिबद्ध है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । गाथाके उत्तरार्धमें कृष्टिके अनुभागोंको वेदन करता हुआ नियमसे मध्यम कृष्टिरूपसे ही वेदन करता है इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । और इस प्रकार इस भाष्यगाथाका उत्तरार्ध निर्देशसूत्रहो है, पृच्छासूत्र नहीं, इस प्रकार पहलेके समान व्याख्यान करना चाहिये । अब इस प्रकार इस भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करते हए आगेके प्रबन्धको अरम्भ करते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषाकी जाती है। ६ १४६ यह सूत्र सूगम है। * यह भाष्यगाथा भी पच्छासूत्र है। $ १४७ यह सूत्र सुगम है।
१. आदर्शप्रती एसो' इति पाठः ।