Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
९ १३९ वेदिज्जमाणावेदिज्जमाणाणं सव्वासिमेव किट्टीणं समयाविरोहेण संकंतिणिय मदंसणादो ।
६०
* जं किहिं वेदयदि तिस्से मज्झिमकिट्टी उदिण्णा ।
$ १४० वेदिज्जमाणसंगह किट्टीए हेट्टिमोवरिमासंखेज्जभागविसयाओ किट्टीओ मोत्तूण सेसासेसमज्जिम किट्टिसरूवेण उदयोदीरणाओ पयट्टति त्ति वृत्तं होई ।
$ १३९ उक्त क्षपकजीवके वेद्यमान और अवेद्यमान सभी कृष्टियोंके समय के अविरोधपूर्वक संक्रमका नियम देखा जाता है।
* मात्र वह क्षपक जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उसकी मध्यम कृष्टियाँ ही उदीर्ण होती हैं ।
१४० उक्त क्षपक वेद्यमान संग्रह कृष्टिके अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियों को छोड़कर शेष समस्त मध्यम कृष्टिरूपसे उनके उदय और उदीरणा प्रवृत होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ--पहले १६५ (२१८ ) संख्या के गाथासूत्रका स्पष्टीकरण करनेके प्रसंगसे उसकी १० भाष्यगाथाएं आई हैं। उनमें 'बंधो व संकमो वा' यह प्रथम भाष्यगाथा है । उसमें स्थितिविशेषोंको ध्यान में रखकर बन्ध और संक्रमका तथा अनुभागकी अपेक्षा संक्रमका और किन कृष्टियों की उदय - उदीरणा होती है इसका विचार किया गया है। इसका विशेष खुलासा करते हुए वीरसेन स्वामीने जो स्पष्टीकरण किया है उसका भाव यह है
(१) क्षपकश्रेणिमें क्रोधसंज्वलनकी प्रथम कृष्टिके वेदनके समय संज्वलन कषायका बन्ध चार माह प्रमाण ही होता है, इसलिये इससे ज्ञात होता है कि उक्त गाथासूत्रका पूर्वार्ध पृच्छासूत्र ही है । इसी प्रकार इसके संज्वलनकी सत्ता आठ वर्षप्रमाण होती है, इसलिये इसका संक्रम, उदयको छोड़कर शेष सब स्थितियोंका होता है यह निश्चित होता है । उदयावलि सब करणोंके अयोग्य होती है, इसलिये उदयावलि प्रमाण निषेकोंका संक्रम नहीं होता, यह टीका में स्वीकार किया गया है । यह तो स्थितिबन्ध और स्थितिसंक्रमका विचार है ।
(२) अनुभाग के विषय में सूत्रकारका क्या कहना है ? उसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि संज्वलनको विवक्षित संग्रह कृष्टिके पूरे अनुभागका संक्रम होने में कोई बाधा नहीं आती । जितना भी विवक्षित संग्रह कृष्टिका अनुभाग है उसका समय के अविरोधपूर्वक अपने कालतक संक्रम होता रहता है, यह स्पष्ट है ।
(३) मात्र उदय - उदीरणाके विषयमें यह नियम है कि जिस संग्रह कृष्टिकी उदय - उदीरणा होती है उसकी मध्यम अन्तर कृष्टियों के रूपसे ही उदय उदीरणा होती है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये ।