Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारितक्खवणा $ ९४ एवमेदमुवसंहरिय संपहि किट्टीखवणद्धाए पडिबद्धाणं चउण्हं मूलगाहाणं समासगाहाणं जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेइ--
* एत्तो चत्तारि क्खवणाए त्ति ।
$ ९५ एदं संबंधगाहावयवभूदबीजपदमवलंबणं कादूण चदुण्हं खवणमूलगाहाणं जहाकममेत्तो अत्थविहासणं कस्सामो ति भणिदं होदि । तत्थ ताव पढममूलगाहाए समुक्कित्तणं कुणमाणो इदमाह
* तत्थ पढममलगाहा । ६९६ सुगमं । * (१६१) किं वेदेंनो किटिं खवेदि किं चावि संछुहंतो वा ।
संछोहणमुदयेण च अणुपुष्वं अणणुपुव्वं वा ॥२१४॥
के सम्पूर्ण सन्धियों में स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध के प्रमाण का निश्चय कराया गया है कि इस सन्धि में इन दोनों का प्रमाण इतना होता है और इस सन्धि में इतना होता है। इस रूप में विशेष ज्ञान कराया गया है । 'बन्धपरिहानि' यह अन्तिम क्रियाभेद है, इस द्वारा उक्त क्षपक के स्थितिबन्ध
और अनुभागबन्ध की किस स्थान में कितनी हानि होती है इस प्रकार उनके प्रमाण का निश्चय कराया गया है । इस प्रकार ये दस वीचार (क्रियाभेद) हैं जिनका विशेष व्याख्यान इस ग्यारहवीं मूलगाथा के अन्तर्गत किया गया है। किन्तु इन दस क्रियाभेदों का विशेष व्याख्यान उस-उस स्थान पर पहले ही किया जा चुका है, इसलिए यहाँ नहीं किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
$ ९४ इस प्रकार इन मूल सूत्रगाथाका उपसंहार करके अब कृष्टियोंके क्षपणाके कालसे सम्बन्ध रखनेवाली चार मलगाथाओंकी भाष्यगाथाओंके साथ यथावसर प्राप्त अर्थ की विभाषा करते हुए आगे के विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं।
* अब इससे आगे क्षपणासम्बन्धी चार मल गाथाओं का निर्देश करते है।
६९५ अब इस सम्बन्ध गाथा के अवयवभूत बीज पदका अवलम्बन करके क्षपणासम्बन्धी चार मूल गाथाओं के अर्थ की क्रमानुसार विभाषा करेंगे यह उक्त कथन का तात्पर्य है। उनमेंसे सर्वप्रथम प्रथममूलगाथाकी समुत्कीतना करते हुए इस सूत्रको कहते हैं
* उन मूल गाथाओं में यह प्रथम मूलगाथा है । ६९६ यह सूत्र सुगम है।
* (१६१) यह क्षपक कृष्टियों को क्या वेदन करता हुआ क्षय करता है, या क्या संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, या क्या संक्रमण और वेदन दोनों करता हुआ क्षय करता है, या क्या आनुपूर्वी से क्षय करता है, या क्या आनुपूर्वी के बिना क्षय करता है ॥२१४॥