Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० २१५ ] संछुहंतो च खवेदि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । संपहि बारसमीए बादरसांपराइयकिट्टीए केरिसो खवणाविहि ति आसंकाए इदमाह--
* बारसमीए बादरसांपराइयकिट्ठीए अव्ववहारो।
६ १०८ कुदो ? सुहुमसांपराइयकिट्टीसरूवेण परिणमिय खविज्जमाणाए तिस्से सगसरूवेण विणासाणुवलंभादो। संपहि 'चरिमं वेदेमाणो खवेदि' त्ति इमं सुत्तावयवमस्सियण सहुमसांपराइयकिट्टीए खवणाए विहिं परूवेमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ-- ___ * चरिमं वेदेमाणो त्ति अहिप्पायो जा सुहमसांपराइयकिट्टी सा चरिमा, तदो तं चरिमकिहि वेदेंतो खवेदि; ण संछुहंतो।
१०९ चरिमं वेदयमाणो त्ति भणिदे ण चरिमबादरसांपराइयकिट्टीए गहणं कायव्वं, किंतु जा सुहुमसांपराइयकिट्टो सा चेव चरिमा त्ति इह विवक्खिया; सव्वपच्छिमाए तिस्से तव्ववएसोववत्तीदो तदो तं चरिमकिट्टि वेदेंतो चेव खवेदि, ण संछहतो ति सुत्तत्थसंबंधो । कुदो एवमिदि चे ? तत्थ णवकबंधसंभवाणुवलंभादो; तिस्से पडिग्गहतराणुवलंभादो च।। उससे अधस्तन कृष्टियोंका अपने वेदक कालके भीतर वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ क्षय करता है इस प्रकार यह सूत्रका भावार्थ है। अब बारहवीं बादर साम्परायिक संग्रहकृष्टिकी क्षपणाविधि किस प्रकारको है ऐसी आशंका होनेपर आगेके विभाषासूत्रको कहते हैं
* बारहवीं बादरसाम्परायिक कृष्टिमें उक्त व्यवहार नहीं है।
१०८ क्योंकि उसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणमाकर क्षपणा होनेवाली उसका अपने स्वरूपसे विनाश नहीं उपलब्ध होता। अब 'चरिमं वेदेमाणो खवेदि' इस प्रकार इस सूत्रके अवयवका आश्रय करके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकी क्षपणाको विधिको प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* 'चरिमं वेदेमाणो' अर्थात अन्तिम संग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ इस पद का अभिप्राय है कि जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है वह अन्तिम है, इसलिये उस अन्तिम कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है, क्षपणा करता हुआ उसका क्षय नहीं करता।
8 १०९ 'चरिमं वेदयमाणो' ऐसा कहनेपर अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिका ग्रहण नहीं कन्ना चाहिये । किन्तु जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है वही अन्तिम है, यह यहाँ विवक्षित है, क्योंकि वह सबसे अन्तिम है, इसलिए उसकी यह संज्ञा बन जाती है। अतः उस अन्तिम कृष्टिको वेदन करता हुआ ही उसका क्षय करता है, संक्रमण करता हुआ उसका क्षय नहीं करता यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है।
शंका-ऐसा किस कारणसे है ?
समाधान--क्योंकि उसमें नवकबन्धका सद्भाव नहीं पाया जाता तथा उसका प्रतिग्रहान्तर उपलब्ध नहीं होता।