Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गा० २१५ ]
११२ गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि एत्थ उभयेणे तिज पदं तस्स अस्थविवरणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* किं उभयेणे त्ति ? $ ११३ उभयेणे ति किमुक्तं भवतीति चेद् ? उच्यते । * वेदेंतो च संछहंतो च एदमुभयं ।
६ ११४ वेदगमावेण संछोहयभावेण च खवेदि त्ति एसो उभयसहस्सत्थो जाणियव्यो त्ति भणिदं होदि ।
११५ एवमेत्तिएण सुत्तपबंधेण पढममूलगाहाए एगभासगाहापडिबद्धमत्थं विहासिय संपहि जहावसरपत्ताए बिदियमूलगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो इदमाह
६ ११२ यह सूत्र गतार्थ है। अब यहाँ ( इस सूत्रमें ) 'उभयेण' यह जो पद आया है उसके अर्थ का खुलासा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ।
* 'उभय प्रकारसे' इसका क्या अर्थ है ? ६ ११३ 'उभय प्रकारसे' इसका क्या अर्थ है ? ऐसी शंका होनेपर कहते हैं
* 'वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ [क्षय करता] है' यह उभयपद का अर्थ है।
६ ११४ 'वेदकभावसे और संक्रमण करनेके भावसे क्षय करता है' यह उभय शब्दका अर्थ जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ-सब मिलाकर बारह संग्रह कष्टियां हैं और उनमें से प्रत्येक की अनन्त अन्तरकृष्टियाँ हैं । उनको क्षपणा कैसे होती है ? वेदन करके क्षपणा होती है या संक्रमण करके क्षपणा होती है, या दोनों प्रकार से क्षपणा होती है, यह एक मुख्य प्रश्न है। इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि प्रारम्भ की जो ग्यारह संग्रह कृष्टियाँ और उनकी जो अवान्तर कृष्टियाँ हैं उनमें से प्रत्येक के वेदन करने के अन्त में जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध समयप्रबद्ध बचते हैं उनका अगली संग्रह कृष्टि में संक्रमण होकर ही वेदन होता है तथा दो समय कम दो आवलि प्रमाण नवकबन्ध के अतिरिक्त जितनो भो संग्रह कृष्टियों और उनकी अवान्तर कृष्टियाँ हैं उन सबका वेदन और संक्रमण होकर ही क्षय होता है। शेष रही बारहवीं संग्रह कृष्टि और
अवान्तर कृष्टियाँ सो ये क्रष्टिकरण के काल में बादररूपसे ही कृष्टिपने को प्राप्त होती है। परन्तु इसका अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही सूक्ष्मकृष्टिरूपसे परिणमन हो जाता है, अतः सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में वेदन होकर ही इनका क्षय होता है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
$ ११५ इस प्रकार इतने सूत्रप्रबन्ध द्वारा एक भाष्य गाथा के साथ प्रथम मुलगाथा के अर्थ की विभाषा करके अब यथावसरप्राप्त दूसरी मुलगाथा के अर्थ को विभाषा करते हुए इस सूत्र को कहते हैं