Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारितक्खवणा
$ १३२ एसा पढमभासगाहा पुग्वद्वेण हिदिबंध - ट्ठिदिसंकमाणं किट्टीवेदगखवगसंबंधीणं णिण्णयविहाण मोइण्णा 'बंधो वा संकमो वा नियमा' णिच्छयेणेव किं सव्वे ट्ठिदिविसेसेस होदि आहो ण सब्वेसु त्ति पदाहिसंबंधवसेण परिष्फुडमेवेत्थ ट्ठिदिबंधसंकमणणिण्णयत्रिहाणस्स पडिबद्धत्तदंसणादो । एदं च गाहापुव्वद्धं पुच्छासुत्तमेव, णणिद्दे ससुत्तमिदि उवरि चुण्णिसुत्तयारो सयमेव भणिहिदि । तत्थेव तव्विणिण्णयं कस्साम । तम्हा पच्छद्वेण वि अणुभागसं कमस्स अणुभागोदयस्स च किट्टीविसयस्स पवृत्तिविसेसो एवं होदि ति णिण्णयविहाण मेसा भासगाहा समोइण्णा, सव्वेसु चैव णिरुद्धसंग हकिट्टीए अणुभागवियप्पेसु संकमो होदि, उदयो पुण मज्जिमकिट्टीसरूवेणेव दट्ठव्वोत्ति परिष्फुडमेव गाहापच्छद्वे अणुभागविसयाणं संकमोदयाणं णिण्णयविहाणदंसणादो । एदं च गाहापच्छद्धं णिद्दे ससुत्तमेव, ण पुच्छासुत्त मिदि त्वं । संपहि एवंविहत्थ पडिबद्धाए एदिस्से पढमभासगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो पुव्वमेव ताव गाहापुव्वद्धस्स णि ससुचाभावासं काणिरायरणदुवारेण पुच्छासु त्तत्थ समत्थणट्ठमुवरिमं पबंधमाढवे
१३२ यह प्रथम भाष्यगाथा, अपने पूर्वार्धद्वारा कृष्टिवेदक के क्षपकसम्बन्धी स्थितिबन्ध और स्थितिसंक्रमका निर्णय करने के लिये अवतीर्ण हुई है । बन्ध और संक्रम 'णियमा' निश्चयसे ही क्या सभी स्थितिविशेषों में होता है या सभी स्थितिविशेषों में नहीं होता इस प्रकार पदों के अभिसम्बन्ध वशसे स्पष्टरूपसे ही यहाँ पर स्थितिबन्ध और संक्रमके निर्णयके विधानका अर्थके साथ सम्बन्ध देखा जाता है । और यह गाथाका पूर्वार्ध पृच्छासूत्र ही है; निर्देशसूत्र नहीं, यह आगे चूर्णिसूत्रकार स्वयं हो कहेंगे, इसलिये वहीं उसका निर्णय करेंगे । इस कारण गाथाके उत्तरार्ध द्वारा भी कृष्टिविषयक अनुभाग-संक्रम और अनुभाग- उदयकी प्रवृत्तिविशेष इस प्रकार होती है इस बात का निर्णय करने के लिये यह भाष्यगाथा अवतीर्ण हुई है, क्योंकि विवक्षित संग्रह कृष्टिके अनुभागसम्बन्धी सभी भेदों में संक्रम होता है । परन्तु उदय मध्यम कृष्टिरूपसे ही जानना चाहिये इस प्रकार गाथा के उत्तरार्ध में अनुभाग विषयक संक्रम और उदयके निर्णयका कथन स्पष्टरूपसे देखा जाता है और यह गाथाका उत्तरार्ध निर्देशसूत्र ही है, पृच्छासूत्र नहीं है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अब इस प्रकार के अर्थ - के साथ सम्बन्ध रखनेवाली इस प्रथम भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करते हुए सर्वप्रथम गाथाके पूर्वार्ध में निर्देशसूत्रकी अभावविषयक आशंकाके निराकरण द्वारा पृच्छासूत्ररूप अर्थका समर्थन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं