Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरितक्खवणा भागबंधाणं पमाणावहारणे णवमो एसो वीचारो पडिबद्धो त्ति गहेयव्यो । 'बंधपरिहाणीए' एवं भणिदे ठिदि-अगुभागबंधपरिहाणि-पमाणावहारणे दसमो एसो वीचारो पडिबद्धो ति णिच्छओ कायव्यो ।
$ ९१ एवमेदेहिं दसहिं वीचारेहिं मोहणीयस्स परूवणा एदिस्से मूलगाहाण पडिबद्धा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ । एवंविहा च सव्वा परूवणा पुव्यमेव पवंचिदा त्ति ण पुणो पवंचिज्जदे; पयासिदप्पयासणे फलामावादो। संपहि सेसाणं पि कम्माणं णाणावरणादीणमेदेहिं वीचारेहिं जहासंभवं मग्गणा कायव्या त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* सेसाणि कम्माणि एदेहिं वीचारेहिं अणुमग्गियवाणि ।
६ ९२ गयत्थमेदं गाहापच्छद्धपडिबद्धं विहासासुत्तमिदि ण एत्थ किंचि वक्खाणेयन्वमस्थि । एवमेदीए सव्वमग्गणाए सवित्थरमणुमग्गिदाए तदो एक्कारसमी मूलगाहा समप्पदि त्ति जाणावणट्ठमुवसंहारवक्कमाह
* अणुमग्गिदे समत्ता एक्कारसमी मुलगाहा भवदि ।
पर उससे कृष्टिवेदकके सब सन्धियोंमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणके निश्चय करने में यह नौवां क्रियाभेद प्रतिबद्ध है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । 'बंधपरिहाणीए' इस पदद्वारा बन्धपरि हानि ऐसा कहने पर स्थितिबन्धको परिहानि और अनुभागबन्धकी परिहानिके प्रमाणके निश्चय करने में यह दसवाँ क्रियाभेद प्रतिबद्ध है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये।
६९१ इस प्रकार इन दस क्रियाभेदोंके द्वारा इस दसवीं मूलगाथा में मोहनीय कर्मकी प्ररूपणा प्रतिबद्ध है, इस प्रकार यहां पर मूलगाथासूत्रका यह समुच्चयरूप अर्थ जानना चाहिये ।
और इस प्रकारकी सम्पर्ण प्ररूपणा पहले ही विस्तारके साथ कह आये हैं. इसलिये उसका पनः विस्तार नहीं करते हैं, क्योंकि प्रकाशित कथन के पुनः प्रकाशन करने में कोई फल नहीं दिखाई देता। अब शेष ज्ञानावरणादि कर्मोंकी भी इन्हीं क्रियाभेदोंके द्वारा यथासम्भव गवेषणा कर लेनी चाहिये इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* शेष कर्मोंकी मी इन्हीं क्रियामेदों के द्वारा मार्गणा कर लेनी चाहिये ।
$ ९२ मूलगाथाके उत्तरार्धसे सम्बन्ध रखनेवाला यह विभाषासूत्र गतार्थ हुआ। इसमें कुछ भी व्याख्यान करने योग्य नहीं है, इस प्रकार इस सम्पूर्ण मार्गणाका विस्तारसहित अनुसन्धानकर लेने पर उसके बाद ग्यारहवीं मूलगाथा समाप्त होती है इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिये उपसंहार वचनको कहते हैं--
* उक्त विषयोंकी मार्गणा कर लेने पर ग्यारहवीं मूलगाथा समाप्त होती है ।